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________________ ८८ व्यवहार सूत्र - चतुर्थ उद्देशक kartataarakiratramadiradaridratikritikattaraikadattatraktarak बहवे भिक्खणो एगयओ विहरंति, णो ण्हं कप्पड़ अण्णमण्णं उवसंपन्जित्ताणं विहरित्तए, कप्पइ ण्हं अहाराइणियाए अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए॥१२७॥ - बहवे गणावच्छेइया एगयओ विहरंति, णो ण्हं कप्पइ अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, कप्पइ ण्हं अहाराइणियाए अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए॥१२८॥ बहवे आयरियउवज्झाया एगयओ विहरंति, णो ण्हं कप्पइ अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, कप्पइ ण्हं अहाराइणियाए अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए॥१२९॥ बहवे भिक्खुणो बहवे गणावच्छेइया बहवे आयरियउवज्झाया एगयओ विहरंति, णो ण्हं कप्पइ अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, कप्पइ ण्हं अहाराइणियाए अण्णमण्णं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए॥१३०॥ त्ति बेमि॥ । ववहारस्स चउत्थो उद्देसओ समत्तो॥४॥ कठिन शब्दार्थ - उवसंपज्जित्ताणं - उपसंपन्न - समानाधिकार युक्त, अहाराइणियाएयथारानिकता - रत्नाधिकता के अनुरूप। भावार्थ - १२४. दो भिक्षु यदि एक साथ विहार करते हों - विचरते हों तो परस्पर एक-दूसरे को समानाधिकार संपन्न - बराबर मानकर विचरण करना नहीं कल्पता है, किन्तु दोनों में जो दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ हो, उसे उपसंपन्न - अधिकार सम्पन्न या अग्रणी मानकर विचरण करना कल्पता है। १२५. दो गणावच्छेदक यदि एक साथ विहार करते हों - विचरते हों तो परस्पर एकदूसरे को समानाधिकार सम्पन्न - बराबर मानकर विचरण करना नहीं कल्पता है, किन्तु दोनों में जो दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ हो, उसे उपसंपन्न - अधिकार संपन्न या अग्रणी मानकर विचरण करना कल्पता है। १२६. दो आचार्य या उपाध्याय यदि एक साथ विहार करते हों तो परस्पर एक-दूसरे को समानाधिकार संपन्न मानकर विचरण करना नहीं कल्पता है, किन्तु उनमें जो दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ हो, उसे उपसंपन्न - अधिकार संपन्न या अग्रणी मानकर विचरण करना कल्पता है। ... १२७. बहुत से भिक्षु यदि एक साथ विचरते हों तो उन सबको अपने - अपने को उपसंपन्न - बराबर मानकर विचरण करना नहीं कल्पता, किन्तु उनमें जो दीक्षा पर्याय में ज्येष्ठ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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