SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 402
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७६ व्यवहार सूत्र - चतुर्थ उद्देशक xxxkakakakakakakakakakakakakakakakakakakakakkakkakakakirdaar परिस्थिति में प्रवर्तक का यह कर्त्तव्य है कि जिनको जिस प्रवृत्ति के लिए योग्य मानते हों, उन्हें वे उस ओर प्रेरित और प्रवृत्त करें। जो उन्हें जिस प्रवृत्ति के सम्यक् निर्वाह में योग्य न जान पड़े, उन्हें वे उस ओर से निवृत्त करें। साधक के लिए इस प्रकार के पथ-निर्देशक का होना परम आवश्यक है। इससे उसकी शक्ति और पुरुषार्थ का समीचीन उपयोग होता है। ऐसा न होने से कई प्रकार की कठिनाइयाँ उपस्थित हो जाती हैं। उदाहरणार्थ - कोई श्रमण अति उत्साह के कारण अपने को उग्र तपस्या में लगाये, पर कल्पना कीजिये, उसकी दैहिक क्षमता इस प्रकार की न हो, स्वास्थ्य अनुकूल न हो, मानसिक स्थिरता कम हो तो वह अपने प्रयत्न में जैसा सोचता है, चाहता है, सफल नहीं हो पाता। उसका उत्साह टूट जाता है, वह अपने को शायद हीन भी मानने लगता है। अत एव प्रवर्तक, जिनमें ज्ञान, अनुभव तथा अनूठी सूझबूझ होती है, का दायित्व होता है कि वे श्रमणों को उनकी योग्यता के अनुरूप उत्कर्ष के विभिन्न मार्गों पर गतिशील होने में प्रवत्त करें, जो उचित न प्रतीत हों, उनसे निवृत्त करें। उक्त तथ्य को स्पष्ट करते हुए और भी कहा गया है - तवसंजमनियमेसु, जो जुग्गो तत्थ तं पवेत्तई। असूह य नियतत्ती, गणतत्तिल्लो पवत्तीओ॥ — तपः संयमयोगेषु मध्ये यो यत्न योग्यस्तं तत्र प्रवर्तयन्ति, असहाश्च। असमर्थाश्च निवर्तयन्ति। एवं गणतृप्ति प्रवृत्ताः प्रवर्तिनः। संयम, तप आदि के आचरण में जो धैर्य और सहिष्णुता चाहिए, जिनमें वह होती है, वे ही उसका सम्यक् अनुष्ठान कर सकते हैं। जिनमें वैसी सहनशीलता और दृढता नहीं होती, उनका उस पर टिके रहना संभव नहीं होता। प्रवर्तक का यह काम है कि किस श्रमण को किस ओर प्रवृत्त करे, कहाँ से निवृत्त करे। गण को तृप्त-तुष्ट-उल्लसित करने में प्रवर्तक सदा प्रयत्नशील रहते हैं। ___ स्थविर - जैन संघ में स्थविर का पद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। स्थानांग सूत्र * में दश प्रकार के स्थविर बतलाये गये हैं, जिनमें से अन्तिम तीन जाति-स्थविर, श्रुत-स्थविर तथा पर्याय-स्थविर का सम्बन्ध विशेषतः श्रमण जीवन से है। स्थविर का सामान्य अर्थ प्रौढ या . व्यवहार भाष्य, उद्देशक १, गाथा ३४० स्थानांग सूत्र, स्थान १० सूत्र ७६१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy