SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 401
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७५ उपस्थापन विधि वहाँ एक विकल्प रखा गया है । छेदोपस्थापनीय चारित्र योग्य भिक्षु के पिता आदि पूज्यजन दीक्षार्थी या दीक्षित हों तथा उनके बड़ी दीक्षा योग्य होने में विलम्ब हो तो कल्पाक को छह मास तक बड़ी दीक्षा न देने पर भी आचार्य या उपाध्याय को प्रायश्चित्त नहीं आता । जैन दर्शन अनेकान्तवादी होने कारण निश्चय और व्यवहार दोनों नयों को लेकर चलता है । यहाँ व्यवहार नय की अपेक्षा से निरूपण हुआ है। यदि पुत्र की बड़ी दीक्षा पहले हो जाए तथा पिता की बड़ी दीक्षा बाद में हो तो दीक्षा पर्याय की ज्येष्ठता के कारण पुत्र को पिता द्वारा नित्यप्रति वंदन किया जाना अपेक्षित है । तत्त्वतः इस वंदन - व्यवहार में कोई दोष नहीं है। क्योंकि वंदन तो संयम रूप गुणनिष्पन्नता को है, व्यक्ति को नहीं, किन्तु व्यवहार में बाप, बेटे को वंदन - नमन करे, यह समीचीन नहीं लगता । अतः निश्चय के साथ-साथ व्यवहार दृष्टि अनुसरणीय है। इस सूत्र में आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्त्तक, स्थविर, गणी, गणधर एवं गणावच्छेदक पदों का उल्लेख हुआ है। आचार्य, उपाध्याय तथा गणावच्छेदक विषयक वर्णन पहले यथाप्रसंग आ चुका है। यहाँ उनके अतिरिक्त अन्य पदों का विवेचन इस प्रकार है - प्रवर्त्तक- आचार्य के बहुविध उत्तरदायित्वों के सम्यक् निर्वहण में सुविधा रहे, धर्मसंघ उत्तरोत्तर उन्नति करता जाए, श्रमणवृन्द श्रामण्य के परिपालन और विकास में गतिशील रहें, इस हेतु अन्य पदों के साथ प्रवर्तक का भी विशेष पद प्रतिष्ठित किया गया। प्रवर्त्तक पद का विश्लेषण करते हुए लिखा है तप संयमयोगेषु, योग्यं योहि प्रवर्त्तयेत् । निवर्त्तयेदयोग्यं च, गणचिन्ती प्रवर्त्तकः ॥ - धर्म संग्रह, अधिकार- ३, गाथा १४३ प्रवर्त्तक गण या श्रमण संघ की चिन्ता करते हैं अर्थात् वे उसकी गतिविधि का ध्यान रखते हैं। वे जिन श्रमणों को तप, संयम तथा प्रशस्त योगमूलक अन्यान्य सत्प्रवृत्तियों में योग्य पाते हैं, उन्हें उनमें प्रवृत्त या उत्प्रेरित करते हैं। मूलतः तो सभी श्रमण श्रामण्य का निर्वाह करते ही हैं पर रुचि की भिन्नता के कारण किन्हीं का तप की ओर अधिक झुकाव होता है, कई शास्त्रानुशीलन में अधिक रस लेते हैं, कई संयम के दूसरे पहलुओं की ओर अधिक आकृष्ट रहते हैं। रुचि के कारण किसी विशेष प्रवृत्ति की ओर श्रमण का उत्साह हो सकता है पर हर किसी को अपनी यथार्थ स्थिति का भलीभाँति ज्ञान हो, यह आवश्यक नहीं । अति उत्साह के कारण कभी-कभी अपनी क्षमता को आंक पाना भी कठिन होता है। ऐसी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy