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________________ व्यवहार सूत्र - चतुर्थ उद्देशक ७४ kakakakArAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAX ११४. आचार्य अथवा उपाध्याय स्मरण न रहने पर बड़ी दीक्षा के योग्य भिक्षु को चारपाँच रात का समय बीत जाने पर भी छेदोपस्थापनीय चारित्र में स्थापित न करें - बड़ी दीक्षा न दें, यदि तब उस बड़ी दीक्षा योग्य भिक्षु के कोई पूज्य पुरुष - पिता, पितृव्य, ज्येष्ठ भ्राता आदि के बड़ी दीक्षा होने में देर हो तब आचार्य या उपाध्याय को दीक्षा छेद या परिहार-तप रूप प्रायश्चित्त नहीं आता। ___ यदि बड़ी दीक्षा योग्य भिक्षु के कोई पूज्य - आदरणीय पुरुष वैसी स्थिति में न हों तब आचार्य अथवा उपाध्याय को चार-पाँच रात बीत जाने पर भी बड़ी दीक्षा न देने पर दीक्षाछेद या परिहार-तंप रूप प्रायश्चित्त आता है। ११५. आचार्य अथवा उपाध्याय स्मरण होते या स्मरण न होते हुए भी दस रात(रातदिन) का समय व्यतीत हो जाने पर भी बड़ी दीक्षा योग्य भिक्षु को दीक्षा न दें, यदि तब उस बड़ी दीक्षा योग्य भिक्षु के माननीय - पूजनीय पुरुष की बड़ी दीक्षा होने में विलम्ब हो तो आचार्य आथवा उपाध्याय को दीक्षा-छेद या परिहार-तप रूप प्रायश्चित्त नहीं आता। ... यदि बड़ी दीक्षा के योग्य भिक्षु के कोई पूज्य पुरुष के बड़ी दीक्षा योग्य होने का प्रसंग न होने पर आचार्य या उपाध्याय को दस रात्रि का उल्लंघन करने के कारण एक वर्ष तक आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणधर या गणावच्छेदक पद पर अधिष्ठित होने योग्य नहीं रहते। विवेचन - प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव एवं अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के शासनकाल में सामायिक चारित्र फिर छेदोपस्थापनीय चारित्र में स्थपित करने का - दीक्षित करने का क्रम रहा है। सामायिक चारित्र को छोटी दीक्षा तथा छेदोपस्थापनीय चारित्र को बड़ी दीक्षा कहा जाता है। सामायिक चारित्र के लिए न्यूनतम काल-मर्यादा सातवें दिन तथा अधिकतम छह मास की है। . नवदीक्षित को अर्थ एवं विधि सहित सम्पूर्ण आवश्ययक सूत्र का कंठस्थीकरण, षट्जीवनिकाय, पंचसमिति आदि का सामान्य ज्ञान, दशवैकालिक सूत्र के चार अध्ययनों का अर्थ सहित वाचना पूर्वक कंठाग्रता तथा प्रतिलेखन आदि दैनिक क्रियायों का अभ्यास - इतना हो जाने पर कल्पाक या बड़ी दीक्षा के योग्य कहा जाता है। ' आचार्य और उपाध्याय का यह कर्तव्य है कि बड़ी दीक्षा के योग्य हो जाने पर उसको चार-पाँच रात के भीतर बड़ी दीक्षा दे दें। वैसा न करने पर वे प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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