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________________ एकपाक्षिक भिक्षु के लिए पद विधान ************* के होने पर भिक्षुगण से बहिर्गत हो जाता है, किन्तु ज्यों ही उसका मन स्वस्थ होता है, बुद्धि ठिकाने आती है तथा अपनी भूल का अहसास होता है, यदि वह असंयम का सेवन किए बिना वापस गण में आना चाहे तब गण के स्थविरों के सामने यह प्रश्न उपस्थित होता है कि उसे गण में शामिल करने से पूर्व प्रायश्चित्त दिया जाए अथवा नहीं दिया जाए ? यह विवाद भी खड़ा हो उठता है कि कौन जाने इसने दोष सेवन किया है या नहीं किया है ? वैसी स्थिति में शास्त्रीय विधानानुसार स्थविरों का अन्ततः यही चिन्तन रहता है कि इसी पूछा जाए। यदि वह दोष सेवन स्वीकार करे तो इसे प्रायश्चित्त का पात्र माना जाए एवं यदि वह दृढ़ता से कहे कि उसने कोई दोष सेवन नहीं किया है तो वह प्रायश्चित्त का भागी नहीं होता है। क्योंकि जीवन-भर के लिए महाव्रत के रूप में सत्य को स्वीकार करने वाले पर ऐसा विश्वास करना असमीचीन नहीं होता । एक पाक्षिक भिक्षु के लिए पद विधान ३७ ए पक्खियस्स भिक्खुस्स कप्पड़ आयरियउवज्झायाणं इत्तरियं दिसं वा अणुदिसं वा उद्दित्तिए वा धारेत्तए वा, जहा वा तस्स गणस्स पत्तियं सिया । । ६५ ॥ कठिन शब्दार्थ - एगपक्खियस्स एक पक्षीय के एक ही आचार्य के पास दीक्षित एवं शिक्षित, इत्तरियं - इत्वरिक - अल्पकालिक, उद्दिसित्तए - उद्दिष्ट करना मनोनीत करना, धारेत्तए - स्थापित करना, जहा यथा जैसे, पत्तियं प्रत्यय - विश्वास । भावार्थ - ६५. एक पक्षीय भिक्षु को अल्पकाल के लिए अथवा जीवनभर के लिए आचार्य या उपाध्याय के पद पर मनोनीत करना, स्थापित करना कल्पता है अथवा जिसमें गण की प्रतीति हो, जैसी विश्वसनीयता हो, हित दिखाई दे वैसा करणीय है । विवेचन प्रस्तुत सूत्र में अल्पकाल के लिए या जीवनभर के लिए आचार्य या उपाध्याय पद सौंपने के संबंध में वर्णन है। - Jain Education International - - आचार्य या उपाध्याय अल्पकाल के लिए किसी विशेष तप, अध्ययन, अध्यापन आदि किन्ही महत्त्वपूर्ण कारणों से अथवा किसी विशिष्ट रोग की चिकित्सा हेतु पदमुक्त रहना चाहे तो वे उतनी अवधि के लिए किसी योग्य भिक्षु को आचार्य या उपाध्याय पद पर नियुक्त करते. हैं, उसे अल्पकालिक कहा जाता है। अतिवृद्धता, दीर्घकालीन असाध्य रुग्णता, मृत्यु की निकटता का आभास अथवा जिनकल्प For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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