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________________ व्यवहार सूत्र - द्वितीय उद्देशक . ३८ . xaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaati आदि विशिष्ट साधना के कारण आचार्य या उपाध्याय जीवनभर के लिए योग्य भिक्षु को पद पर मनोनीत करते हैं। - सूत्र में मनोनीत किए जाने योग्य भिक्षु की चर्चा करते हुए एकपाक्षिक विशेषण का उल्लेख हुआ है। “एकः प्रव्रज्यारूपः श्रुतरूपः पक्षोयस्य स एकपाक्षिकः।" पक्ष शब्द यहाँ जीवन के परमलक्ष्यमूलक विशिष्ट कार्य का द्योतक है। "ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः" ज्ञान और क्रिया की आराधना से मोक्ष की सिद्धि होती है। ज्ञान, आगमों तथा शास्त्रों के श्रवण से, पठन से एवं अध्ययन से प्राप्त होता है, उसे श्रुत कहा जाता है। क्रिया का तात्पर्य संयम या आध्यात्मिक साधनामूलक प्रवृत्तियों से है, जिनका प्रारम्भ प्रव्रज्या या दीक्षा से होता है। यहाँ प्रव्रज्या और श्रुत को दो पक्षों के रूप में स्वीकार किया गया है। यहाँ एक पाक्षिक का तात्पर्य उस भिक्षु से है, जिसने एक ही आचार्य या गुरु से प्रव्रज्या स्वीकार की हो, उन्हीं से आगम-वाचना ली हो, श्रुताध्ययन किया हो। भाष्यकार ने इस संबंध में प्रतिपादन किया है - . . १. जिसने एक गुरु के पास ही आगम-वाचना ग्रहण की हो अथवा जिसका सूत्र - ज्ञान तथा अर्थ ज्ञान आचार्य आदि के सदृश हो, वह श्रुत से एकपाक्षिक कहा जाता है। २. जो एक ही कुल, गण या संघ में प्रव्रजित होकर स्थिरतापूर्वक रहा हो, वह प्रव्रज्या में एकपाक्षिक कहा जाता है । इस परिभाषा के अनुसार निम्नांकित चार भंग बनते हैं - १. प्रव्रज्या तथा श्रुत से एक पाक्षिक। २. प्रव्रज्या से एकपाक्षिक किन्तु श्रुत से नहीं। ३. श्रुत से एकपाक्षिक किन्तु प्रव्रज्या से नहीं। ४. न प्रव्रज्या से एकपाक्षिक और न श्रुत से ही एकपाक्षिक। इन चारों भंगों में प्रथम भंगवर्ती भिक्षु ही पद के योग्य होता है, क्योंकि वह पूर्ववर्ती आचार्य या उपाध्याय के व्यक्तित्व, कृतित्व, साधना एवं विद्या का साक्षात् अनुभव लिए हुए होता है। इसलिए वह दायित्व-निर्वाह में सर्वथा समर्थ होता है। के दुविहो य एगपक्खी, पवज सुए य होई नायव्वो। सुत्तम्मि एगवायण, पवजाए कुलिव्वादी॥ - - व्यव.भाष्य, गा. ३२५ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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