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दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र - प्रथम दशा
अभिक्खणं अभिक्खणं ओहा(रि )रइत्ता भवइ॥११॥ णवाणं अहिगरणाणं अणुप्पण्णाणं उप्पाइत्ता भवइ॥१२॥ पोराणाणं अहिगरणाणं खामिय विउसवियाणं पुणो (उ)दी(रि रेत्ता भवइ ॥१३॥ अकालसज्झायकारए यावि भवइ॥१४॥ ससरक्खपाणिपाए ॥१५॥ सहकरे (भेयकरे)॥१६॥ झंझकरे॥१७॥ कलहकरे॥१८॥ सूरप्पमाणभोई॥१९॥ एसणाऽसमिए यावि भवइं॥२०॥ एए खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं वीसं असमाहिट्ठाणा पण्णत्ता।।२१॥त्ति बेमि॥
___॥ पढमा दसा समत्ता॥१॥ कठिन शब्दार्थ - सुर्य - सुना गया है, मे - मेरे द्वारा, आउसं - आयुष्मन्, तेणं भगवया - उन भगवान् द्वारा, एवमक्खायं - ऐसा कहा गया है, इह - यहाँ, थेरेहिं भगवंतेहिं - स्थविर भगवंतों द्वारा, असमाहिट्ठाणा - असमाधि स्थान, पण्णत्ता - कहे गए हैं - प्रज्ञापित हुए हैं, कयरे - कौनसे, दवदवचारी - शीघ्र-शीघ्र चलना, यावि - चापि, अप्पमजियचारी - प्रमार्जन किए बिना चलना, दुप्पमज्जियचारी - दुष्प्रमार्जित कर - यथावत् प्रमार्जन न कर चलना, अइरित्तसेज्जासणिए - अतिरिक्त शय्या, आसन रखना, राइणियपरिभासी -- रत्नाधिक - श्रमण पर्याय में ज्येष्ठ के समक्ष परिभाषण करना - आवश्यकता से अधिक बोलना, थेरोवघाइए - स्थविरों - वयोवृद्ध, चारित्रवृद्ध श्रमणों का उपमात करना, भूओवघाइए - पृथ्वी आदि का उपघात करना, संजलणे - संज्वलन - क्रोध सेजलना, कोहणे - कोपाविष्ट होना, पिट्टिमंसिए - पीठ पीछे आलोचना करना, अभिक्खणंक्षण-क्षण, ओहारइत्ता - अवधारणात्मक - निश्चयात्मक, णवाणं - नवीन, अहिगरणाणंकलह - क्लेश आदि, अणुप्पण्णाणं - उत्पन्न न हुए हों, उप्पाइत्ता - उत्पत्तिकारक, पोराणाण - पुराने, खामिय - क्षमित, विउसवियाणं - व्युत्सारित करना, अकाल
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