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________________ प्रथम उद्देश अर्थ हैं। यहाँ 'मन में जैसा आए वैसा करने' के अर्थ में प्रयुक्त है। स्वच्छन्द भिक्षु अपने मनमाने व्यवहार के कारण कदम-कदम पर स्खलित होता रहता है। 'कुशील' दोषपूर्ण व्यवहारचर्या के अर्थ में है । यहाँ इतना और ज्ञातव्य है कि जो साधु एषणापूर्ति, कीर्ति, ख्याति आदि हेतु मन्त्र-तंत्र, टोना-टोटका, निमित्त-कथन, भविष्यवाणी आदि करता है, वह सब कुशील सेवन में समाविष्ट है । व्यवहार सूत्र यहाँ आए हुए अवसन्न के मूल में अवसाद शब्द है । अवसाद शब्द 'अव' उपसर्ग तथा 'सद्' धातु के योग से बना है । " अव समन्तात् सीदति - दुःखमनुभवति स अवसादः” इस व्युत्पत्ति के अनुसार किसी कार्य को करने में कष्ट या खेद का अनुभव करना अवसाद है। जो भिक्षु व्रत पालन में दुःख मानता है, वह उनका भलीभाँति अनुसरण नहीं कर सकता । - २० ***** उसी प्रकार जो संयम के प्रतिकूल आचरण करने वालों में आसक्त रहता है, उनसे मेलजोल रखता है, वह उन जैसे ही संयम रहित चर्या में अनुरत रहने लगता है। Jain Education International इन पाँचों ही कोटियों में आने वाले साधु संयम का अपलाप तो करते हैं, उसका पूर्णरूप से पालन तो नहीं करते किन्तु वे सर्वथा असंयमी नहीं हो जाते, अंशतः उनमें संयमाराधना बची रहती है, वही उनकी पुनः संघ में आने की पात्रता है। यदि पूर्णतः संयम के प्रतिकूल आचरण करने लगते हैं तो गण में आने का प्रश्न ही नहीं रह जाता । उसी पात्रता के कारण वे दोषानुरंजित पूर्वावस्था का आलोचन, प्रतिक्रमण कर, आचार्य द्वारा निर्देशित प्रायश्चित्त कर गण में आने के अधिकारी होते हैं । अन्य लिंग-ग्रहण के अनन्तर पुनरागमन भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म परपासंडपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरेज्जा, से य इच्छेना दोच्चं पि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, णत्थि णं तस्स तप्पत्तियं केइ छेए वा परिहारे वा णण्णत्थ एगाए आलोयणाए ॥ ३२-२ ॥ कठिन शब्दार्थ- परपासंडपडिमं - अन्य संप्रदाय या मत का लिंग या वेश, तप्पत्तियंतत्प्रत्यिक - अन्य लिंग या वेश ग्रहण करने से संबद्ध, णण्णत्थ - नान्यत्र अन्य या और नहीं। भावार्थ - ३२ - २. जो भिक्षु गण से पृथक् होकर (किसी अपरिहार्य कारणवश ) किसी अन्य संप्रदाय या मत विशेष का वेश धारण कर विहरण करे तथा बाद में उसी गण में पुनः For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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