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________________ २१ संयम परित्याग के पश्चात् पुनः गुण में आगमन ****** अपना वास्तविक लिंग स्वीकार कर गण में आकर रहना चाहे तो उसे केवल आलोचना के अतिरिक्त अन्य लिंग ग्रहण करने का दीक्षा-छेद या तप विशेष का प्रायश्चित्त नहीं आता। विवेचन - इस सूत्र में परपाषंड शब्द का प्रयोग जैनेतर संप्रदायों या मतवादों के लिए हुआ है, जिनके अपने-अपने विभिन्न प्रकार के लिंग या वेश होते हैं। यदि कोई भिक्षु असह्य उपद्रवों से उद्विग्न होकर सतत संयम - रक्षा हेतु गण से पृथक् हो जाए तथा आर्हत् धर्म के विपरीत राज्य आदि से उत्पन्न विघ्नोत्पादक कारणों से बचने के लिए किसी दूसरे संप्रदाय का वेश स्वीकार कर विहरण करें, वैसी स्थितियों के समाप्त हो जाने पर यदि वह, जैसा सूत्र में उल्लेख हुआ है, पुनः अपना परम्परागत वेश अंगीकार कर गण में रहना चाहे तो उसे दीक्षाछेद या तप विशेष का प्रायश्चित्त नहीं आता। केवल पूर्वावस्था की आलोचना ही करनी पड़ती है, क्योंकि उसका भाव-संयम सुरक्षित होता है । उस स्थिति में, जहाँ कोई भिक्षु कषायादिवश गण से पृथक् होकर अन्य वेश स्वीकार करे तथा पुनः गण में आना चाहे तो उस पर यह सिद्धान्त लागू नहीं होतां क्योंकि वह मूलतः दोषी होता है, उसे दीक्षा-छेद या तप विशेष के प्रायश्चित्त के अनन्तर ही गण में सम्मिलित किया जाता है। संयम परित्याग के पश्चात् पुनः गण में आगमन भिक्खू य गणाओ अवक्कम्म ओहावेज्जा, से य इच्छेजा दोच्चं पि तमेव गणं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, णत्थि णं तस्स केइ छेए वा परिहारे वा णण्णत्थ एगाए 'सेहोवट्ठावणियाए * ॥ ३३ ॥ कठिन शब्दार्थ - ओहावेज्जा - अवधावन करे पंचमहाव्रतों से पराङ्मुख हो जाए, सेहोवद्वावणियाए - छेदोपस्थापनीय नव दीक्षा । भावार्थ - ३३. यदि कोई भिक्षु गण से पृथक् होकर पंचमहाव्रतमूलक संयम का परित्याग कर दे और वह पुनः गण में आकर संयमी साधु के रूप में रहना चाहे तो उसे छेदोपस्थापनीय चारित्र या नव दीक्षा को स्वीकार करना होता है। दीक्षा-छेद या तप विशेष का प्रायश्चित्त उसे नहीं आता । विवेचन - जैन आगमों में चारित्र के पाँच भेद माने गए हैं। १. सामायिक चारित्र, पाठान्तर - छेओवट्ठावणियाए Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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