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________________ १९ पार्श्वस्थ, स्वच्छन्द विहरणशील आदि का गण पुनरागमन ********★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ २९. यदि भिक्षु गंण से पृथक् होकर स्वच्छन्द विहारचर्या अपना कर विचरण करे तथा फिर वह दुबारा गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे, यदि उसमें चारित्र कुछ भी शेष रहा हो तो वह पूर्वावस्था की संपूर्ण रूप से आलोचना, प्रतिक्रमण करे, जिस पर आचार्य उसे दीक्षाछेद या तप विशेष का प्रायश्चित्त दें, उसे ( वह ) स्वीकार करे । ३०. यदि भिक्षु गण से पृथक् होकर कुत्सित विहारचर्या अपनाकर विचरण करे एवं फिर वह दुबारा गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे, यदि उसमें चारित्र कुछ भी शेष रहा हो तो वह पूर्वावस्था की संपूर्ण रूप से आलोचना, प्रतिक्रमण करे, जिस पर आचार्य उसे दीक्षा-छेद या तप विशेष का प्रायश्चित्त दें, उसे ( वह ) स्वीकार करे । ३१. यदि भिक्षु गण से पृथक् होकर अवसादपूर्ण विहारचर्या अपनाकर विचरण करे और फिर वह दुबारा गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे, यदि उसमें चारित्र कुछ भी शेष रहा हो तो वह पूर्वावस्था की संपूर्ण रूप से आलोचना एवं प्रतिक्रमण करे, जिस पर आचार्य उसे दीक्षा-छेद या तप विशेष का जो प्रायश्चित्त दें, उसे (वह) स्वीकार करे । ३२- १. यदि भिक्षु गण से पृथक् होकर आसक्तिपूर्ण विहारचर्या अपनाकर विचरण करे तथा फिर वह दुबारा गण में सम्मिलित होकर रहना चाहे, यदि उसमें चारित्र कुछ भी शेष रहा हो तो वह पूर्वावस्था की संपूर्ण रूप से आलोचना एवं प्रतिक्रमण करे, जिस पर आचार्य उसे दीक्षा-छेद या तप विशेष का जो प्रायश्चित्त दें, उसे ( वह ) स्वीकार करे । विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में पाँच प्रकार के भिक्षुओं का वर्णन है, जो संयम साधना में दुर्बल, अनुत्साहित, उदासीन या अवसन्न होते हैं। इस कारण वे गण से पृथक् हो जाते हैं। ऐसा सब होने पर भी वे चारित्र या संयम से सर्वथा रहित नहीं होते, कुछ न कुछ संयमानुकूल आचरण करते रहते हैं। इन पाँचों में पहली कोटि में वे आते हैं, जो ज्ञान, दर्शन एवं चारित्रमूलक मोक्षमार्ग में अनुरत तो नहीं होते किन्तु उसके समीप होते हैं अर्थात् यत्किंचित् उनका पालन करते हैं । इसीलिए उन्हें पार्श्वस्थ कहा गया है। क्योंकि पार्श्व का अर्थ पास या समीप है। संयम - साधना अनुशासन पर आधृत है। वहाँ मनमानापन नहीं चलता। दूसरी कोटि में वैसे ही साधु आते हैं, जिनका आचरण अनुशासन, नियमानुवर्तिता आदि के प्रतिकूल होता है । छन्द शब्द के गण या मात्रायुक्त कविता, प्रसन्नता, वंचना, प्रसादन तथा इच्छा आदि अनेक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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