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________________ १२७ सवृन्त तुम्बिका रखने का विधि-निषेध * ****** ************** ३७. साधुओं को अवलम्बन या सहारा लेकर बैठना या करवट लेना कल्पता है। विवेचन - शारीरिक अस्वस्थता, वृद्धता आदि पूर्वोक्त कारणों के अनुरूप आश्रययुक्त अर्थात् भित्तिका, कुर्सी, पट्टविशेष इत्यादि का सहारा लेकर बैठने का यहाँ आशय है। साधुओं के लिए इसे अव्यावहारिक न होने से विहित किया गया है तथा साध्वियों के लिए पूर्वकथनानुसार लोक व्यवहार आदि के कारण अकल्प्य कहा गया है। शृंगयुक्त पीठ आदि के उपयोग का विधि-निषेध णो कप्पइ णिग्गंथीणं सविसाणंसि पीढंसि वा फलगंसि वा आसइत्तए वा तुयट्टित्तए वा॥३८॥ कप्पइ णिग्गंथाणं सविसाणंसि पीढंसि वा फलगंसि वा आसइत्तए वा तुयट्टित्तए वा॥३९॥ ___ कठिन शब्दार्थ - सविसाणंसि - विषाणयुक्त - सींग की तरह ऊँचे उठे हुए कंगूरे, पीढंसि - चौकी (पीढा), फलगंसि - पट्ट (तख्ता) पर। ___भावार्थ - ३८. साध्वियों को शृंगाकार युक्त कंगूरों सहित पीढे या पट्ट पर बैठना या करवट बदलना नहीं कल्पता। ' ___३९. साधुओं को शृंगाकार युक्त कंगूरों सहित पीढे या पट्ट पर बैठना या करवट बदलना कल्पता है। विवेचन - इस सूत्र में सींग के आकार जैसे कंगूरों से युक्त पीढे और पट्ट पर साध्वियों के लिए बैठने, सोने या करवट लेने का जो निषेध किया गया है, उसका आशय उनकी ब्रह्मचर्य मूलक भावना को अव्याहत एवं सुस्थिर बनाए रखना है। यद्यपि साध्वियाँ ब्रह्मचर्य की साधना में सुदृढ़ और समुद्यत होती हैं किन्तु वैसा जरा भी प्रसंग न बने, जिससे कदाचन मानवीय दुर्बलतावश मन में अवांछित भाव का उद्गम हो सके, ऐसा यहाँ वांछनीय है। सवृत तुम्बिका रखने का विधि-निषेध णो कप्पइ णिग्गंथीणं सवेण्टयं लाउयं धारेत्तए वा परिहरित्तए वा॥४०॥ कप्पड़ णिग्गंथाणं सवेण्टयं लाउयं धारेत्तए वा परिहरित्तए वा॥४१॥ कठिन शब्दार्थ - सवेण्टयं - डण्ठल सहित, लाउयं - अलाबु - तुम्बिका। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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