SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२५ ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ साध्वियों के लिए आकुंचनपट्टक धारण का निषेध लकुटासन · करवट से सोकर मस्तक तक एक हथेली पर टिकाकर और पांव पर पांव चढ़ाकर लेटे रहना। इसमें मस्तक और एक पांव भूमि से ऊपर रहता है। अवाङ् मुखासन - अधोमुखी होकर लम्बे सोने का आसन। उत्तानासन - हाथ पांव आदि फैलाए हुए या अन्य किसी भी अवस्था में रहना किन्तु मुख आकाश की तरफ होना अर्थात् चत्ता सोना। आम्रकुज्जासन - जिस प्रकार आम्र फल ऊपर से गोल और नीचे से कुछ टेढ़ा होता है, इसी प्रकार इस आसन में पूरा शरीर तो पैरों के पंजों पर रखना होता है, घुटने कुछ टेढ़े रखने होते हैं। शेष शरीर का सम्पूर्ण भाग सीधा रखना होता है। - एक पाश्वासन - भूमि पर एक पार्श्व भाग (करवट) से सोना। तपश्चरण में अभिग्रह स्वीकार दृढ़ता एवं आत्मशक्ति का परिचायक है किन्तु कुछ ऐसे अभिग्रह हैं, जो पुरुषों द्वारा साधे जाने योग्य हैं। दैहिक संस्थान, मार्द्रव, कोमलत्व आदि नारी जीवन के साथ कुछ ऐसी स्थितियाँ जुड़ी हुई हैं, जिनके कारण वैसे अभिग्रहों में विघ्न या संकट आशंकित है। ब्रह्मचर्य पर आपत्ति आना भी संभावित है क्योंकि दुराचारी, कामुकजन नारी को स्थिति विशेष में देखकर कामासक्त हो सकते हैं। सर्वथा न चाहते हुए भी नारी में ऐसी शारीरिक शक्ति नहीं होती कि वह अपने आपको बचा सके। अत एव शील परिरक्षण की दृष्टि से इन विशिष्ट तपोमूलक अभिग्रहों का साध्वी के लिए निषेध किया गया है। इस संबंध में यह ज्ञातव्य है कि साध्वी के लिए आसनों का सम्पूर्णतः निषेध नहीं है। भाष्यकार ने इस संदर्भ में उल्लेख किया है कि वीरासन और गोदोहिकासन के अतिरिक्त अन्य सभी आसन अभिग्रह के बिना साध्वियों के लिए भी करणीय हैं। अभिग्रह अवस्था में आसन विशेष स्वीकार करने पर उसमें उतने समय तक स्थित रहना होता है जबकि अभिग्रह के अभाव में प्रतिकूल उपसर्ग उपस्थित होने पर आसन आदि को तुरन्त त्यागा जा सकता है। साध्वियों के लिए आकुंचनपट्टक धारण का निषेध . णो कप्पइ णिग्गंथीणं आउंचणपट्टगं धारेत्तए वा परिहरित्तए वा॥३४॥ कप्पइ णिग्गंथाणं आउंचणपट्टगं धारेत्तए वा परिहरित्तए वा॥३५॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy