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गृहीत अनेषणीय आहार का उपयोग या परिष्ठापन विधान *****************************AAAAAAAAAAAA*****************
गृहीत अनेषणीय आहार का उपयोग या परिष्ापन विधान - णिग्गंथेण य गाहावइकुलं पिण्डवायपडियाए अणुप्पविद्वेणं अण्णयरे अचित्तं अणेसणिज्जे पाणभोयणे पडिग्गाहिए सिया, अत्थि या इत्थ केइ सेहतराए अणुवट्ठावियए, कप्पइ से तस्स दाउं वा अणुप्पदाउं वा, णत्थि या इत्थ केइ सेहतराए अणुवट्ठावियए तं णो अप्पणा भुंजेजा णो अण्णेसिं दावए एगंते बहुफासुए थंडिले पडिलेहित्ता पमजित्ता परिट्टवेयव्वे सिया॥१८॥ .
कठिन शब्दार्थ - अणेसणिजे - अनेषणीय - दोषयुक्त, सेहतराए - नवदीक्षित, अणुवट्ठावियए - महाव्रतारोपण रहित, दाउं - देने के लिए, अणुप्पदाउं - अनुप्रदत्त करना।
भावार्थ - १८. गाथापति - गृहस्थ के घर में आहार लेने हेतु अनुप्रविष्ट साधु को कुछेक अचित्त, प्रासुक किन्तु अनेषणीय भक्त-पान जाने-अनजाने प्रतिगृहीत हो जाय तो उसे नवदीक्षित महाव्रतारोपण रहित (बड़ी दीक्षा नहीं हुई हो ऐसा) साधु हो तो उसे देना, अनुप्रदान करना - एषणीय आहार देने के बाद भी देना कल्पता है। ____ यदि वहाँ कोई नवदीक्षित, महाव्रतारोपण रहित साधु न हो तो वह साधु उसे न स्वयं खाए न अन्यों को देवे वरन् एकांत, सर्वथा स्थंडिल भूमि को प्रतिलेखत-प्रमार्जित कर परिष्ठापित करे।
विवेचन - यहाँ नवदीक्षित और महाव्रतारोपण रहित साधु को अनेषणीय आहार देने का जो विधान किया गया है, उसका अभिप्राय यह है कि यद्यपि वह नवदीक्षित श्रमण संज्ञा से
अभिहित तो है किन्तु जब तक महाव्रतों का सम्यक् आरोपण नहीं होता तब तक वह सर्वथा • श्रामण्य का अधिकारी नहीं माना जाता। यह (महाव्रतों के उपस्थापन के पूर्व का काल) प्रयोगकाल कहा जाता है। इस काल स्थिति में नवदीक्षित परिपक्व हो जाता है। तभी उसमें महाव्रतों का आरोपण किया जाता है या बड़ी दीक्षा दी जाती है। ___ बौद्ध परंपरा में प्रव्रज्या से पूर्व उपसंपदा दी जाती है। उपसंपदा का अर्थ प्रव्रज्या के पूर्व का एक सीमित प्रयोगकाल है, जिसमें वह भिक्षु जीवन में सर्वथा पालनीय, अनुकरणीय मर्यादाओं का निर्वाह करने में स्वयं को सक्षम बना लेता है।
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