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बृहत्कल्प सूत्र - चतुर्थ उद्देशक
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औदेशिक आहार की कल्पनीयता-अकल्पनीयता जे कडे कप्पट्ठियाणं कप्पड़ से अकप्पट्ठियाणं; णो से कप्पइ कप्पट्ठियाणं। जे कडे अकप्पट्ठियाणं णो से कप्पड़ कप्पट्ठियाणं, कप्पइ से अकप्पट्ठियाणं। कप्पेट्ठिया कप्पट्ठिया, अकप्पे ठिया अकप्पट्ठिया॥१९॥
कठिन शब्दार्थ - कडे - बनाया हुआ, कप्पट्ठियाणं - कल्पस्थित साधुओं के लिए, अकप्पट्ठियाणं - अकल्पस्थित साधुओं के लिए।
भावार्थ - १९.कल्पस्थित साधुओं के लिए बनाया गया आहार अकल्पस्थितों को लेना कल्पता है किन्तु कल्पस्थितों को लेना नहीं कल्पता।
जो (आहार) अकल्पस्थितों के लिए बनाया गया हो वह कल्पस्थितों को नहीं कल्पता किन्तु अकल्पस्थितों को कल्पता है।
जो कल्प में स्थित हैं वे कल्पस्थित कहे जाते हैं तथा जो कल्प में स्थित नहीं हैं, वे अकल्पस्थित कहे जाते हैं। .. विवेचन - स्वीकरणीय आचार विषयक क्रिया विशेष को कल्प कहा जाता है। कल्प दस हैं। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के साधु-साध्वी इन दसों कल्पों का पालन करते हैं इसलिए वे कल्पस्थित कहे जाते हैं।
द्वितीय तीर्थकर से तेवीसवे तीर्थकर तक के साधु-साध्वी दस कल्पों का संपूर्णतः पालन नहीं करते। उनके लिए केवल चार कल्पों - शय्यातरपिंडकल्प, कृतिकर्मकल्प, व्रतकल्प तथा ज्येष्ठकल्प का पालन करना आवश्यक है।
संपूर्णतः कल्पों का पालन न करने के कारण वे अकल्पस्थित कहे जाते हैं।
इस सूत्र में कल्पस्थितों और अकल्पस्थितों द्वारा औदेशिक आहार की ग्राह्यता-अग्राह्यता की जो चर्चा की गई है, उससे यह प्रतीत होता है कि प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के अतिरिक्त शेष बाईस तीर्थंकरों के साधु-साध्वियों के लिए औद्देशिक आहार की कल्पनीयता का विधान है, जिसके मूल में उनका ऋजुप्राज्ञत्व है।
दस कल्प निम्नांकित हैं - .
9. अचेल कल्प - यह कल्प वस्त्रमर्यादा की ओर इंगित करता है। इसके अन्तर्गत साधु को रंगीन, मूल्यवान एवं आवश्यकता.से अधिक वस्त्रों को रखने का निषेध किया गया है।
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