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बृहत्कल्प सूत्र - चतुर्थ उद्देशक
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भाष्यकार ने इस संबंध में और अधिक स्पष्ट किया है कि जिन कल्पी श्रमण के लिए तो यह विधान है कि जिस प्रहर में आहार ले उसी प्रहर में ग्रहण कर ले। स्थविर कल्पी तीन प्रहर तक आहार को रख सकता है।
दो कोस से आगे आहार ले जाने का निषेध ___णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परं अद्धजोयणमेराए उवाइणावेत्तए, से य आहच्च उवाइणाविए सिया, तं णो अप्पणा भुंजेजा णो अण्णेसिं अणुप्पदेजा, एगते बहुफासुए थंडिले पडिलेहित्ता पमजित्ता परिट्टवेयव्वे सिया, तं अप्पणा भुंजमाणे अण्णेसिं वा दलमाणे आवजइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्धाइयं।।१७॥.
कठिन शब्दार्थ - अद्धजोयणमेराए - अर्द्ध योजन की सीमा में - दो कोस की मर्यादा में। . भावार्थ - १७. साधु-साध्वियों को अशन, पान, खाद्य एवं स्वाद्य आदि चतुर्विध आहार आधा. योजन (दो कोस) की सीमा से आगे ले जाना नहीं कल्पता।
कदाचित् (भूलवश) यदि ऐसा हो जाए तो उस आहार को न तो स्वयं खाए और न अन्य को ही देवे, वरन् एकांत, सर्वथा स्थंडिल भूमि को प्रतिलेखित, प्रमार्जित कर परठ दे। . ऐसे आहार को स्वयं ग्रहण करने या अन्य साधु-साध्वियों को देने पर (ऐसा साधु). उद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित का भागी होता है।
विवेचन - दो कोस के अवग्रह क्षेत्र (सीमा) से आगे - आधा कोस (लगभग १ किलोमीटर ८०० मीटर) तक स्थण्डिल भूमि योग्य नहीं मिलने के कारण आहार आदि ले गये हो तो - उस आहार आदि को पुनः अवग्रह क्षेत्र (दो कोस) की मर्यादा में आ करके उपभोग किया जा सकता है। आधा कोस से अधिक (कुल मिलाकर ७.२+१.८ कि. मी. = ९ किलोमीटर) दूर ले जाने पर पुनः अवग्रह क्षेत्र में लाकर के उस आहार आदि को उपभोग में नहीं ले सकते हैं - उसे तो परठना ही होता है।... - पूर्व के १६वें सूत्र में तो - प्रथम प्रहर का लाया हुआ आहार आदि यदि अनाभोग से भी चतुर्थ प्रहर में रखा गया हो, तो उसे परठना ही होता है, क्योंकि 'काल' (समय) को तो इधर उधर परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। क्षेत्र को तो परिवर्तित किया जा सकता है।
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