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________________ ८५. प्रथम प्रहर में गृहीत आहार को चतुर्थ प्रहर में रखने का निषेध ************************************************************* यद्यपि सामान्यतः रुग्णावस्था प्राप्त साधु-साध्वी में ऐसा भाव नहीं होता किन्तु पूर्वतन संस्कारजनित वेदविकारवश कदाचन ऐसा आशंकित हो सकता है। तदर्थ इस प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। प्रथम प्रहर में गृहीत आहार को चतुर्थ प्रहर में रखने का निषेध . णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पढमाए पोरिसीए पडिग्गाहेत्ता पच्छिमं पोरिसिं उवाइणावेत्तए, से य आहच्च उवाइणाविए सिया, तं णो अप्पणा भुंजेजा णो अण्णेसिं अणुप्पदेजा, एगंते बहुफासुए थंडिले पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिद्ववेयव्वे सिया, तं अप्पणा भुंजमाणे अण्णेसिं वा दलमाणे आवजइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं॥१६॥ कठिन शब्दार्थ - पोरिसीए - प्रहर में, पच्छिमं - दिन के.अन्तिम (प्रहर में), उवाइणावेत्तए - रखने में, आहच्च - कदाचन (आहार रूप में न लेने से), अप्पणा - स्वयं, अणुप्पदेज्जा - अनुप्रदान करे - खाने को दे, एगंते - एकांत स्थान में, बहुफासुए - सर्वथा प्रासुक, पडिलेहित्ता - प्रतिलेखित कर, पमज्जित्ता - प्रमार्जित कर, परिद्ववेयव्वे - परिष्ठापित करे, आवजइ - प्राप्त करता है। भावार्थ - १६. निर्ग्रन्थों या निर्ग्रन्थिनियों को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आदि चतुर्विध आहार प्रथम प्रहर में ग्रहण कर अन्तिम प्रहर तक रखना नहीं कल्पता। यदि कदाचन वैसा आहार रह जाए तो न वे उसे स्वयं खाएं तथा न अन्यों को खाने हेतु दें किन्तु एकान्त, सर्वथा प्रासुक, स्थंडिल भूमि का प्रतिलेखन, प्रमार्जन कर उसे परठ दें। उसे स्वयं खाते हुए या औरों को (अन्य साधु-साध्वियों को) देने पर उद्घातिक चातुर्मासिक प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। विवेचन - आत्मेतर, शरीरापेक्षी आहार आदि में कदापि संग्रह की भावना न रहे, यह अपरिग्रह का अत्यन्त उत्कृष्ट और आदर्श रूप है। प्रथम प्रहर के आहार को चतुर्थ प्रहर तक न रखने का जो विधान किया गया है, उसका तात्पर्य यह है कि साधु के मन में आहार के प्रति जरा भी आसक्ति न आए। उसका जीवन सर्वथा आत्मापेक्षी, हलका बना रहे। क्योंकि आहार को दीर्घकाल तक प्रतिगृहीत रखना एक प्रकार से परिग्रह को ही अनुमोदित करना है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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