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________________ ८४ बृहत्कल्प सूत्र - चतुर्थ उद्देशक ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ जिनमें ये दोष नहीं होते, वैसे दोषादि रहित गुणग्राही तथा सत् तत्त्व जिज्ञासु शिक्षार्थी सुखपूर्वक ज्ञापित, अध्यापित, शिक्षित करने योग्य होते हैं। ग्लान में उद्भूत मैथुन भाव का प्रायश्चित्त णिग्गंथिं च णं गिलायमाणिं पिया वा भाया वा पुत्तो वा पलिस्सएज्जा, तं च णिग्गंथी साइज्जेज्जा, मेहुणपडिसेवणपत्ता आवजइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्धाइयं॥१४॥ णिग्गंथं च णं गिलायमाणं माया वा भगिणी वा धूया वा पलिस्सएज्जा, तं च णिग्गंथे साइजेजा, मेहुणपडिसेवणपत्ते आवजइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं ॥१५॥ कठिन शब्दार्थ - गिलायमाणिं - रुग्ण, पलिस्सएज्जा - परिष्वजेत - गिरने से बचाने हेतु सहारा दे, साइजेजा - साभिरुचि अनुभव करे, मेहुणपडिसेवणपत्ता - मैथुन सेवन की इच्छा से युक्त, आवज्जइ - प्राप्त होता है। भावार्थ - १४. ग्लान (रोगयुक्त) साध्वी के संसारपक्षीय पिता, भाई या पुत्र उसे अशक्ततावश (गिरती हुई देखकर) सहारा दें (हाथ आदि के सहारे से बचाएं), उस समय वह साध्वी मैथुन-प्रतिसेवन परिणामवश मन में आनुकूल्य अनुभव करे तो उसको चातुर्मासिक अनुद्घातिक प्रायश्चित्त आता है। १५. ग्लान साधु की संसारपक्षीय माता, भगिनी या पुत्री उसे (साधु को) अशक्ततावश (गिरता हुआ देखकर) सहारा दे, उस समय वह साधु मैथुन-प्रतिसेवन परिणामवश मन में आनुकूल्य अनुभव करे तो उसको चातुर्मासिक अनुद्घातिक प्रायश्चित्त आता है। _ विवेचन - साध्वी के लिए किसी भी पुरुष का स्पर्श तथा साधु के लिए किसी भी स्त्री का स्पर्श जिनाज्ञा के सर्वथा विरुद्ध है। किन्तु रुग्णतावश जब साधु या साध्वी स्वयं चलने में असमर्थ हो अथवा गिर पड़ने की आशंका हो, वैसी स्थिति में साधु की संसार पक्षीय पारिवारिक स्त्रियाँ तथा साध्वी के संसारपक्षीय पारिवारिक पुरुष उसे सहारा दे, गिरने से बचाएं, तब यदि साधु या साध्वी के मन में विपरीत लिंगीय स्पर्श के कारण कामवासना का भाव उत्पन्न हो जाय तो उन्हें गुरु चातुर्मासिक अनुद्घातिक प्रायश्चित्त आता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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