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बृहत्कल्प सूत्र - चतुर्थ उद्देशक
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तओ कप्पंति वाइत्तए, तंजहा - विणीए णो विगईपडिबद्धे विओसवियपाहुडे॥११॥ . कठिन शब्दार्थ - वाइत्तए - वाचना के लिए, अविणीए - अविनीत, विगईपडिबद्धेविकृति प्रतिबद्ध - विकृत मानसिकता युक्त, अविओसवियपाहुडे - अव्यवशमित प्राभृत - अनुपशान्त क्रोध युक्त। __ भावार्थ - १०. निम्नांकित तीन को वाचना देना नहीं कल्पता - १. विनय रहित २. विकृति प्रतिबद्ध तथा ३. अनुपशान्त क्रोध युक्त।
११. निम्न तीन को वाचना देना कल्पता है१. विनीत २. विकृति अप्रतिबद्ध तथा ३. (जिसका)क्रोध उपशान्त हो।
विवेचन - श्रमण जीवन में ज्ञानाराधना और चारित्राराधना - दोनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सर्वज्ञ प्ररूपित आगमों का वाचन, अध्ययन ज्ञानाराधना का महत्त्वपूर्ण अंग है। साधुओं को वाचना देने का मुख्य दायित्व उपाध्याय या वाचना प्रमुख पर होता है। वाचना प्रदायक द्वारा दी जाने वाली वाचना सार्थक सिद्ध हो - एतदर्थ इस सूत्र में यह निरूपित किया गया है कि तीन प्रकार के वाचनार्थी अयोग्य होते हैं। उनमें सबसे पहले अविनीत का उल्लेख हुआ है। . जिसमें विनय नहीं होता, वह आदर और श्रद्धा पूर्वक वाचना नहीं ले पाता।
दूसरे भेद में विकृति प्रतिबद्ध शब्द का प्रयोग एक विशेष अर्थ में है। सामान्यतः विकार को विकृति कहा जाता है किन्तु जैन परंपरा में विकारोत्पादक दूध, दही, घृत आदि पौष्टिक पदार्थों को 'विगई' कहा जाता है। ब्रह्मचारी के लिए अति पौष्टिक भोजन इसलिए वर्जित है क्योंकि वे मानसिक विकारोत्पादक माने गए हैं। कारण में कार्य का उपचार करते हुए विकार हेतुता के कारण दूध, दही, घृत आदि को 'विगय' या विकृति कहा गया है। जो साधु इन पदार्थों में लोलुप या गृद्ध होता है, उसमें प्रमाद, आलस्य आदि अवगुण आ जाते हैं, वाचना लेने में वह तन्मय नहीं हो पाता।
तीव्र क्रोधी साधु को भी वाचना के अयोग्य कहा गया है। किसी द्वारा थोड़ा सा अपराध होने पर भी क्रोध में उबल पड़ता है। क्षमा मांगने पर भी उसका क्रोध उपशान्त नहीं होता। ... . अविनय, विकृति एवं तीव्र क्रोध - ये तीनों अवगुण जिनमें नहीं होते, वे वाचना के पात्र होते हैं। वैसे भिक्षुओं को दी गई वाचना सार्थक होती है। इन तीनों में “विणयमूलो
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