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________________ ८१ वाचना के लिए योग्य एवं अयोग्य ☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆* ☆☆☆☆☆⭑ जिनमें पुरुषत्व या पौरुष शक्ति का अभाव होता है, उनकी मनोभूमि और आध्यात्मिक धारा परिणामों की दृष्टि से ऊर्ध्वगामिता नहीं पा सकती । भोग में जो शक्ति एवं ऊर्जा का क्षय होता है, यदि वही शक्ति और ऊर्जा त्याग और वैराग्य में लगा दी जाती है तो वह संयम को बलवत्तर बना देती है। शक्ति और ऊर्जा के भौतिक और आध्यात्मिक द्विविध प्रयोग हैं। भौतिक प्रयोग संसारोपवर्धक हैं तथा आध्यात्मिक प्रयोग मोक्षसाधक हैं। नपुंसक वैसी शक्ति से शून्य होता है। उसके परिणामों की धारा सर्वथा निर्मलता नहीं पा सकती । कुत्सित और मलिन विचारों से उसका मन आंदोलित रहता है क्योंकि वह अतृप्त भोग ( Sex Starved ) होता है । सूत्र में नपुंसकों के जो भेद बतलाए हैं, उनमें पहला 'पण्डक' उनके लिए है, जो जन्मजात नपुंसक होते हैं। 'वातिक' वे नपुंसक हैं, जो वातादि भयानक व्याधि से ग्रस्त होने के कारण पुरुषत्वहीन हो जाते हैं। इनमें निरन्तर वासनात्मक उद्वेलन तो बना रहता है किन्तु वे कामभोग में असमर्थ होते हैं। क्लीब वे हैं, जिनमें भोगशक्ति विषयक मानसिक कायरता बनी रहती है। जो भोग भोगने में स्वयं को संशयापन्न मानते हैं । ☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆ यदि दीक्षा प्रदाता या गुरु को यह ज्ञात हो जाय कि दीक्षार्थी इन तीन प्रकार के नपुंसकों में से किसी भी प्रकार का नपुंसक है तो वे उसे अयोग्य मानकर दीक्षा नहीं देते। यदि दीक्षा काल तक यह ज्ञात नहीं हो पाता और सर्वसावद्ययोग प्रत्याख्यानात्मक दीक्षा दे देते हैं तथा पश्चात् नपुंसकत्व का ज्ञान हो जाए तो केश लोच नहीं करते। केशलोच तक नपुंसकत्व प्रच्छन्न रहे तो महाव्रतारोपण नहीं करते । यदि बड़ी दीक्षा तक ज्ञात नहीं हो तो दीक्षा पश्चात् साथ में आहार नहीं करते तथा साथ में उठना-बैठना नहीं करते । यहाँ इतना और ज्ञातव्य है, जो 'स्त्री-नपुंसक' होते हैं वे सिद्धत्व के योग्य नहीं होते है । किन्तु जो जन्म जात पुरुष नपुंसक होते हैं तथा जो रोगादि कारणों से अस्वाभाविक, कृत्रिम नपुंसक होते हैं, उनमें शक्ति या ऊर्जा का अत्यान्ताभाव नहीं होता। उनमें भी प्रबल प्रयास एवं सद् अध्यवसाय के परिणाम स्वरूप आत्मशक्ति प्रस्फुटित हो सकती है। यही कारण है कि सिद्धों के पन्द्रह भेदों में नपुंसक लिंग सिद्ध भी हैं। वाचना के लिए योग्य एवं अयोग्य Jain Education International तओ णो कप्पंति वाइत्तए, तंजहा अविणीए विगईपडिबद्धे अविओसवियपाहुडे ॥ १० ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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