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________________ । ७९ अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के स्थान इस सूत्र में उन दोषों का उल्लेख है, जो यदि कदाचन साधु के लग जाएं तो उनकी शुद्धि के लिए पारांचिक प्रायश्चित्त का विधान है। “पारीचिक" शब्द 'पार' और 'अञ्च्' धातु से बना है। "पारं अञ्चति - गच्छति, नयति वा इति पाराञ्चिकः" - जो दोष को पार ले जाय, उसे उच्छिन्न या विनष्ट कर दे, वह पारांचिक. है। अर्थात् इसमें वे तप विहित हैं, जिनसे लगे हुए दोष नष्ट हो जाते हैं। दुष्ट का अर्थ दूषित है। दूषितता के आधार पर दुष्ट पारांचिक दो प्रकार का कहा गया है - 9. कषाय दुष्ट - क्रोधादि कषायों के तीव्र होने पर जो अन्य साधु कां घात कर डाले। २. विषय दुष्ट • इन्द्रिय भोग या विषय-वासना के परिणाम स्वरूप जो किसी साध्वी आदि में आसक्त होकर उसके साथ विषय सेवन करे। निम्नांकित दोष सेवी प्रमत्तं पारांचिक के अन्तर्गत आते हैं - 9. मद्य प्रमत्त - मदिरा आदि नशीले पदार्थों के सेवन में प्रमत्त। । २. विषय प्रमत्त - इन्द्रियों के विषयों में लोलुप। ३. कषाय प्रमत्त - क्रोधादि प्रबल कषायों में प्रमत्त। ४. विकया प्रमत्त - स्त्री कथा, राजकथा आदि लोकप्रवण कथा - वार्तालाप में रसिक। ५. निद्रा प्रमत्त - स्त्यानद्धि, निद्रा आदि में प्रमत्त। कामवासनावश साधु यदि समलैंगिक मैथुन सेवन में प्रवृत्त होता है तो दोनों ही पारांचिक दोष के भागी होते हैं। पारांचिक प्रायश्चित्त के अन्तर्गत विविध तपों का उल्लेख आगमों में आए प्रायश्चित्त तपों में द्रष्टव्य है। अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के स्थान तओ अणवटुप्पा पण्णत्ता, तंजहा - साहम्मियाणं तेण्णं करमाणे, अण्णधम्मियाणं तेण्णं करेमाणे, हत्थादालं दलमाणे॥३॥ । जान शब्दार्थ - अणवठ्ठप्पा - अनवस्थाप्य, साहम्मियाणं - साधर्मिकों के, तेण्ण- सैन्य - चौर्य, हत्थादालं - हस्तप्रहार करना - हथेली से चपेट लगाना। भावार्थ - ३. (निम्न तीन स्थान) अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य हैं - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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