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________________ बृहत्कल्प सूत्र - चतुर्थ उद्देशक ☆☆☆☆☆☆ ☆☆☆☆ ☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆ जैन शास्त्रों में मुख्यतः दो प्रकार के प्रायश्चित्तों का वर्णन हुआ है - उद्घातिक एवं अनुद्घातिक । 'उद्घातिक' शब्द के मूल में उद्घात है जो उत् उपसर्गपूर्वक हन् धातु से बनता है । जिस पापकर्म का सामान्य तपरूप प्रायश्चित्त से नाश हो जाता है, वह उद्घातिक है। जो ऐसा निम्नकोटि का कृत्य हो, जो साधारण तप से न मिटे, उसे अनुद्घातिक कहा जाता है। इस सूत्र में जिन तीन कर्मों का उल्लेख हुआ है, वे अत्यन्त निकृष्ट, दूषणीय और परिहेय हैं। साधु वैसा करने की सोच तक नहीं सकता। फिर भी कदाचित् वैसा हो जाए तो उनके विशोधन के लिए गुरु मासिक तथा गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान किया गया है 1 भगवती सूत्र आदि आगमों एवं ग्रन्थों में प्रायश्चित्तों का विस्तार से वर्णन हुआ है, जो पठनीय है। पाराचिक प्रायश्चित्त के हेतु तओ पारंचिया पण्णत्ता, तंजहा दुट्ठे पारंचिए, पमत्ते पारंचिए, अण्णमण्णं करेमाणे पारंचिए ॥ २ ॥ भावार्थ - २. तीन प्रकार के ( कुत्सित कृत्य) पाराञ्चिक प्रायश्चित्त के योग्य बतलाए गए हैं - १. दुष्ट पारांचिक २. प्रमत्त पारांचिक ३. परस्पर अनंगक्रीड़ाजनित पारांचिक | • विवेचन - जैन धर्म और दर्शन दोषों से बचने की दृष्टि से सूक्ष्मावगाही चिन्तन पर आधारित है। जहाँ शुभकर्म, तपश्चरण आदि के सेवन में बहुमुखी विवेचन है वहाँ तुच्छातितुच्छ दोष भी साधु को न लग जाए, अतः दूषित कर्मों का भी विस्तार से उल्लेख है क्योंकि बाढ़ के आने से पूर्व ही बांध का निर्माण करना होता है । : Jain Education International ७८ - कहा गया है " कासारे स्फुटिते जले प्रचलिते पालिः कथं बध्यते" सरोवर के टूट जाने पर, पानी के बह जाने पर फिर पाल कैसे बांधी जा सकती है ? अर्थात् फिर पाल बांधा जाना बहुत दुष्कर है। यही तथ्य यहाँ लागू है। पहले से ही खूब सावधान रहने हेतु छोटे से छोटे दोष की चर्चा की गई है। जैसा पहले सूचित किया गया है, इन दोषों का उल्लेख करने का यह आशय नहीं है कि इनका सेवन होता है । अभिप्राय यह है कि सेवन कभी न हो एतदर्थ जागरूकता उनमें उत्पन्न करना आवश्यक I For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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