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________________ बृहत्कल्प सूत्र - तृतीय उद्देशक . ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ ६६ 'कृतिकर्म' अभ्युत्थान और वन्दनक के रूप में दो प्रकार का होता है। आचार्य, उपाध्याय एवं रत्नाधिकों के गमनागमन के समय उनके सम्मान में उठना - अभ्युत्थित होना "अभ्युत्थान कृतिकर्म" है। प्रातः, सायं प्रतिक्रमण आदि के समय तथा शंका समाधान आदि के प्रसंग में दोनों हाथ जोड़कर, उन्हें अंजलिबद्ध करते हुए, मस्तक के चारों ओर घुमाते हुए चरणों में सिर झुकाकर विधिवत् प्रणाम करना, "वन्दनक कृतिकर्म" है। . ___हाथों को घुमाने का तात्पर्य यह है कि जहाँ-जहाँ भी, जिस-जिस दिशा में जो पंचपरमेष्ठी हैं, उन्हें मैं वन्दन करता हूँ। इस प्रकार भाष्यकार ने इस संदर्भ में विशद व्याख्या करते हुए कृतिकर्म के ३२ दोषों का उल्लेख किया है। कृतिकर्म करते समय इनका ध्यान रखना अत्यावश्यक है अन्यथा वह (दोषी) प्रायश्चित्त का पात्र होता है। ___ गृहस्थ के घर में ठहरने का विधि-निषेध . णो कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अंतरगिहंसि चिट्ठित्तए वा णिसीइत्तए वा तुयट्टित्तए वा णिद्दाइत्तए वा पयलाइत्तए वा, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारमाहारित्तए, उच्चारं वा पासवणं वा खेलं वा सिंघाणं वा परिद्ववित्तए, सज्झायं वा करेत्तए, झाणं वा झाइत्तए, काउस्सग्गं वा ठाणं वा ठाइत्तए, अह पुण एवं जाणेज्जा-वाहिए जराजुण्णे तवस्सी दुब्बले किलंते मुच्छेज वा पवडेज वा, एवं से कप्पइ अंतरगिहंसि चिट्ठिइत्तए वा जाव ठाणं वा ठाइत्तए॥१९॥ कठिन शब्दार्थ - वाहिए - व्याधिग्रस्त, जराजुण्णे - जरा जर्जरित - वृद्ध, किलंतेक्लान्त - थका-मांदा, पवडेज - प्रपतेत् - गिर पड़े, अंतरगिहंसि - गृहस्थ के घर में। भावार्थ - १९. साधु-साध्वियों को गृहस्थ के घर में खड़े होना (ठहरना), बैठना, लेटना या पार्श्व परिवर्तन करना, निद्रा लेना, ऊंघना, अशन-पान आदि चतुर्विध आहार स्वीकार करना, मल-मूत्र-श्लेष्मादि परिष्ठापित करना, स्वाध्याय करना, ध्यान करना तथा कायोत्सर्ग कर स्थित होना नहीं कल्पता है। यहाँ पुनश्च ज्ञातव्य है - व्याधिग्रस्त, वृद्ध, तपस्वी, दुर्बल, क्लान्त तथा मूर्छा आदि में गिर पड़ने की स्थिति में साधु को गृहस्थ के निवास में खड़े रहना यावत् स्थित होना कल्पता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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