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- कृतिकर्म का विधान AAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA************ ****************** - भावार्थ - १७. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थिनियों को दीक्षापर्याय ज्येष्ठत्व के अनुक्रम से शय्या संस्तारक ग्रहण करना कल्पता है।
विवेचन - ‘शय्या' शब्द आश्रय के लिए प्रयुक्त होता है। अर्थात् साधु-साध्वियों के लिए अनुकूल उपाश्रय 'शय्या' कहलाता है। बैठने योग्य पाट आदि तथा सोने के लिए घास, डाभ आदि का संस्तरण संस्तारक कहलाता है।
शय्या-संस्तारक-ग्रहण का क्रम भी पूर्व सूत्रानुसार यहाँ भी जानना चाहिए।
नियुक्तिकार और भाष्यकार ने निम्नांकित (अवरोही) क्रम से शय्या-संस्तारक ग्रहण करने का विधान किया है - ___सर्वप्रथम आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक तदनंतर ज्ञानादि प्राप्ति हेतु अन्य गण से आए हुए अतिथि साधु, ग्लान साधु, अल्प उपधि (वस्त्र) रखने वाले साधु, कर्मक्षयार्थ उद्यत साधु, रातभर वस्त्र न ओढने के अभिग्रह से युक्त साधु, स्थविर, गणी, गणधर, गणावच्छेदक तथा इनके पश्चात् अन्य साधुओं को दीक्षापर्याय कम से शय्या-संस्तारक-ग्रहण करना कल्पता है।
यहाँ विशेष रूप से बतलाया गया है कि नवदीक्षित साधु को रत्नाधिक के पास सुलाना चाहिए जिससे वह उसकी समुचित सार-संभाल कर सके।
इसी प्रकार ग्लान (रोगी) साधु के पास उसके अनुकूल वैयावृत्य करने वाले साधु को स्थान देना चाहिए, जिससे उसकी यथायोग्य सेवा, परिचर्या हो सके।
इसी प्रकार शैक्ष (शास्त्राभ्यासी साधु) को उपाध्याय के समीप स्थान देना चाहिए, जिससे वह जागरणकाल में स्वाध्याय आदि सुना सके, विस्मृत होने पर परिवर्तन-सुधार कर सके।
कृतिकर्म का विधान कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अहाराइणियाए किइकम्मं करेत्तए॥१८॥
भावार्थ - १८. निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थिनियों को दीक्षापर्याय ज्येष्ठत्व के क्रम से कृतिकर्म - वंदन करना कल्पता है।
विवेचन - "कृतिकर्म" का तात्पर्य वंदन व्यवहार से है। आचार्य, उपाध्याय एवं अन्यान्य रत्नाधिकों के प्रति दीक्षापर्याय के क्रम से प्रातः, सायंकाल प्रतिक्रमण आदि प्रारंभ करने से पूर्व साधु-साध्वियों को वंदन करना आवश्यक होता है।
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