SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७४ समण-माहण-अतिहि-किवणवणीमगा, कप्पड़ से एगस्स भुंजमाणस्स पडिगाहित्तए, णो दुहं णो तिण्हं णो चउण्हं णो पंचण्हं, णो गुव्विणीए, णो बालवच्छाए, णो दारगं पेज्जमाणीए, णो अंतो एलुयस्स दोवि पाए साहड्ड दलमाणी, णो बाहिं एलुयस्स दोवि पाए साहड्ड दलमाणीए, एगं पायं अंतो किच्चा एवं पायं बाहिं किच्चा एलुयं विक्खंभत्ता एवं दलयइ एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए, एवं से णो दलयइ एवं से णो कप्पड़ पडिगाहित्तए ॥ ३ ॥ कठिन शब्दार्थ - एगा एक, दत्ती- पात्र विशेष से एक बार में (एक धार से) पानी की, अण्णायउंछं - अज्ञात कुल प्रदत्त, पाणगस्स थोड़ा, सुद्धं उद्गम आदि दोष वर्जित, उवहडं - अन्यों के लिए पकाकर रसोईघर में रखा हुआ, णिज्जूहित्ता - देकर, किवण कृपण, वणीमम - वनीपक- अपनी दुरवस्था के प्रदर्शन - पूर्वक दैन्यपूर्ण आलाप द्वारा भिक्षा मांगने वाले, गुव्विणीए - गर्भवती, बालवच्छाए जिसका बालक छोटा हो, दारगं - बच्चे को, पेज्जमाणीए स्तनपान कराती हुई, एलुयस्स - देहलीज ( देहली ) के, साहट्टु - साथ में (एकत्रित), किच्चा - कृत्वा - करके । भावार्थ - मासिकी भिक्षु प्रतिमा के आराधक को एक दत्ती भोजन और एक दत्ती जल लेना कल्प्य है । वह भी अज्ञात कुल से थोड़ी मात्रा में तथा अन्यों के लिए पकाकर (अनुद्दिष्ट) रखा हुआ एवं अनेक द्विपद चतुष्पद प्राणियों को, श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण (दीन, दरिद्र), वनीपक आदि को देने के पश्चात् जहाँ एक व्यक्ति भोजन कर रहा हो, दो, तीन, चार या पाँच व्यक्ति न हो, वहाँ आहार लेना कल्पता है। गर्भवती, छोटे बच्चे की माँ या बच्चे को दूध पिलाती हुई स्त्री से आहार लेना नहीं कल्पता । (ऐसी नारी से) जिसके दोनों पैर देहली के भीतर या दोनों पैर देहली के बाहर हों, आहार लेना नहीं कल्पता, परन्तु एक पैर देहली के भीतर और दूसरा पैर बाहर हो, इस प्रकार देहली को दोनों पैरों के मध्य में किए हुए दे रही हो तो भिक्षा लेना कल्पता है। यदि इस प्रकार न दे रही हो तो लेना कल्पनीय नहीं होता । Jain Education International दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र सप्तम दशा - - - - विवेचन जैन साधु का जीवन अन्न-पान आदि जीवन निर्वाह के विषय में इतनी पवित्र भूमिका पर अवस्थित है, जिससे दान देने वाले गृहस्थ के भोजन विषयक आरंभ - समारंभपूर्ण कार्यों से जरा भी संबंध न जुड़ा हो तथा ऐसी कोई भी स्थिति न हो, जिससे - For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy