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________________ भिक्षाकाल ७५ dattatrakaratmakkakkadkakakakkkkkkkkkkkkkkAAAAAAAAttraktaarak गृहस्थ के पारिवारिक जीवन पर जरा भी बाधा आए। गर्भवती स्त्री, बालक को दूध पिलाती हुई स्त्री आदि से भिक्षा न लेने का विधान इसी तथ्य का द्योतक है। वहाँ यह उदिष्ट है कि गर्भिणी स्त्री को उठने आदि का कष्ट न हो, बालक के दुग्धपान में अन्तराय न हो। जहाँ एकाधिक व्यक्तियों का सामूहिक भोज हो, वहाँ आहार लेना जो अकल्पनीय बतलाया है, उसका आशय वहाँ आशंकित अधिक आरंभ-समारंभ से पार्थक्य है। साथ ही साथ भोजन . करने वालों के भोजन में किसी भी प्रकार की बाधा उत्पन्न न करने का भाव भी निहित है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि साधु के विभिन्न अभिधानों में जो भिक्षु शब्द का स्वीकार है, वह मुख्यतः उसकी भिक्षाजीविता पर आधारित है। भिक्षा शब्द भिक्ष् धातु से निष्पन्न है, जो याचना के अर्थ में है। अनुद्दिष्ट भिक्षा अन्य लोगों पर निर्भरता का आधार तो है ही साथ ही साथ भिक्षा याचनाजनित 'लज्जा परीषह' का भी बोधक है। मांगना कोई आसान काम नहीं है। यह व्यावहारिक जीवन में असम्मानास्पद है। असम्मान को समभावपूर्वक सहना, उसकी जरा भी परवाह न करना तभी संभव है, जब व्यक्ति "समोमाणावमाणओ" की उच्च भूमिका प्राप्त कर लेता है। भिक्षाकाल मासियं णं भिक्खुपडिमं पडिवण्णस्स अणगारस्स तओ गोयरकाला पण्णत्ता। तंजहा - आ[दिइमे मा ज्झे ज्झिमे चरिमे, आइमे चरेजा, णो मज्झे चरेज्जा, णो चरिमे चरेजा १, मझे चरेजा, णो आइमे चरेजा, णो चरिमे चरेज्जा २, चरिमे चरेज्जा, णो आइमेचरेजा, णो मज्झिमे चरेज्जा३॥४॥ ____ कठिन शब्दार्थ - गोयरकाला - गोचरी के समय, आइमे - आदिम - तीसरे प्रहर का प्रथम भाग, मज्झिमे - मध्य, चरिमे - अंतिम, चरेजा - जाए। भावार्थ - मासिकी भिक्षु प्रतिमाराधक साधु की भिक्षाचर्या के लिए तीन काल बतलाए गए हैं - तीसरे-प्रहर का प्रथम, मध्य और अन्तिम भाग। यदि तीसरे प्रहर के प्रथम भाग में भिक्षाचर्या हेतु जाए तो वह मध्य एवं अन्त्य भाग में न जाए। यदि तीसरे प्रहर के मध्य भाग में भिक्षाचर्या हेतु जाए तो प्रथम और अन्तिम भाग में तदर्थ न जाए। यदि तीसरे प्रहर के अन्तिम भाग में जाए तो प्रथम और मध्य भाग में न जाए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004177
Book TitleTrini Ched Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages538
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_bruhatkalpa, agam_vyavahara, & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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