________________
७०
आवश्यक सूत्र - चतुर्थ अध्ययन
अदिद्वहडाए (अदृष्टाहृत) - अदृष्ट - दिखाई नहीं देने वाले (दूर या अंधेरे) स्थान से लाया हुआ आहार लेने से यह दोष लगता है। गृहस्थ के घर पहुंच कर, साधु को जो भी वस्तु. लेनी हो, वह स्वयं जहां रखी हो, अपनी आंखों से देख कर लेनी चाहिये। यदि कोठे आदि में रखी हुई वस्तु बिना देखे ही गृहस्थ के द्वारा लाई हुई ले ली जाती है तो वह 'अदृष्टाहृत' दोष से दूषित होने के कारण अग्राह्य होती है। देय वस्तु न मालूम किस सचित्त वस्तु आदि पर रखी हो, संघट्टे से युक्त हो, अतः उसके लेने में जीव विराधना दोष लगता है।
परिद्वावणियाए (पारिष्ठापनिका) - १. साधु को बहराने के बाद पात्र में रहे हुए शेष भोजन को जहाँ दाता द्वारा फैंक देने की प्रथा हो वहाँ अयतना की संभावना होते हुए भी आहार लेना। २. आहार देने के पात्र में पहले से रहे हुए किसी भोजन को डाल कर (फैंक कर) दिया जाने वाला अन्य भोजन लेना। ३. उज्झित आहार - जिसमें खाना कम और अधिक फैंकना पड़े ऐसा आहार लेना ४. पूर्व आहार को परठने के भाव से नया आहार ग्रहण करना। . ___ ओहासणभिक्खाए (अवभाषण भिक्षा) - निष्कारण उत्तम वस्तु मांग कर भिक्षा लेने से अथवा दीनतापूर्वक आहारादि की याचना करने से यह दोष लगता है। ___ शंका - भिक्षा निवृत्ति दोष का पाठ (गोयरचरियाए का पाठ) श्रावकों को बोलना क्यों आवश्यक है? . समाधान - गोचरी की दया आदि में लगे दोष गोयरचरियाए के पाठ से शुद्ध होते हैं तथा प्रतिमाधारी श्रावकों को भिक्षाचर्या में लगे हुए दोषों के निवारण के लिये यह पाठ उपयोगी है और अन्य श्रावकों के लिए भिक्षाचर्या तप की श्रद्धा प्ररूपणा में लगे हुए दोषों के निवारण के लिए भिक्षा दोष निवृत्ति का यह पाठ बोलना आवश्यक है।
काल प्रतिलेखना सूत्र
(चाउक्काल सज्झायरस का पाठ) । पडिक्कमामि चाउक्कालं सज्झायस्स अकरणयाए, उभओ कालं भंडोवगरणस्स अप्पडिलेहणाए, दुप्पडिलेहणाए, अप्पमजणाए, दुप्पमजणाए अइक्कमे, वइक्कमे, अइयारे, अणायारे, जो मे देवसिओ अइयारो कओ तस्स . मिच्छामि दुक्कडं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org