________________
प्रतिक्रमण - गोचरचर्या सूत्र (भिक्षा दोष निवृत्ति का पाठ)
६९ 0000000000000000000000000000000mmemo r ammeRRROOME000000
उग्घाड कवाड उग्घाडणाए (उद्धाट कपाटोद्धाटनया) - (चूलिका आदि) (निषिद्ध) अधखुले किवाड़ों को या अनिषिद्ध किवाड़ों को बिना पूंजे अथवा बिना स्वामी की आज्ञा खोलने से।
- मंडी पाहुडियाए (मण्डी प्राभृतिका) - मंडी, ढक्कन को तथा उपलक्षण से अन्यपात्र को कहते हैं। उसमें तैयार किये हुए भोजन के कुछ अग्र अंश को पुण्यार्थ किसी पात्र में निकाल कर अलग रख दिया जाता है जिसे 'अग्रपिण्ड' कहते हैं। ऐसे अग्रपिण्ड को भिक्षा में ग्रहण करना 'मण्डी प्राभृतिका' कहलाता है। यह पुण्यार्थ होने से साधु के लिए निषिद्ध है। अथवा साधु के आने पर पहले अग्रभोजन दूसरे पात्र में निकाल ले और फिर शेष में से दे तो वह भी मंडीप्राभृतिका दोष है, क्योंकि इसमें प्रवृत्ति दोष लगता है। 1. बलि पाहुडियाए (बलि प्राभृतिका) - देवता आदि के लिए पूजार्थ तैयार किया हुआ भोजन 'बलि' कहलाता है। वह भिक्षा में ग्रहण नहीं करना चाहिये। यदि ग्रहण करे तो दोष लगता है। अथवा साधु को दान देने से पहले दाता द्वारा सर्वप्रथम आवश्यक बलिकर्म करने के लिए बलिं को चारों दिशाओं में फेंक कर अथवा अग्नि में डाल कर उसके बाद जो भिक्षा दी जाती है, वह 'बलि प्राभृतिका' है। ऐसा करने से साधु के निमित्त से अग्नि आदि जीवों की विराधना का दोष होता है। ___ठवणा पाहुडियाए (स्थापना प्राभृतिका) - साधु के उद्देश्य से पहले से रखा हुआ भोजन लेना स्थापना प्राभृतिका दोष है अथवा अन्य भिक्षुओं के लिए अलग निकाल कर रखे हुए भोजन में से भिक्षा लेने से स्थापना प्राभृतिका दोष लगता है। . संकिए (शंकित) - आहार लेते समय भोजन के संबंध में किसी प्रकार की भी आधाकर्मादि दोष की आशंका से युक्त आहार लेना। . .. सहसागारे (सहसाकार) - 'उतावला सो बावला' शीघ्रता में आहार लेना, विचार किये बिना आहार लेना।
पच्छाकम्मियाए (पश्चात् कर्मिकया) - साधु साध्वी को आहार देने के बाद तदर्थ संचित्त जल से हाथ या पात्रों को धोने के कारण लगने वाला दोष 'पश्चात् कर्म' कहलाता है।
पुरेकश्मियाए (पुरः कर्मिकया) - साधु साध्वी को आहार देने से पहले सचित्त जल से हाथ या पात्र के धोने से लगने वाला दोष 'पुर:कर्म' कहलाता है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org