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आवश्यक सूत्र - चतुर्थ अध्ययन 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 जीवन निर्वाह करता है और भिक्षावृत्ति में भी निर्दोष आहार ग्रहण करता है। नवकोटि विशुद्धि आहार ग्रहण करने वाले साधु को इन दोषों से बचना आवश्यक है। प्रस्तुत पाठ में आये कुछ . विशिष्ट शब्दों के विशेष अर्थ इस प्रकार हैं -
गोयरचरियाए (गोचरचर्या) - गोचरचर्या शब्द का अर्थ हरिभद्रसूरि इस प्रकार करते हैं - "गोचरणं गोचरः चरण चर्या गोचर इव चर्या गोचर चर्या।" ____ अर्थात् गाय आदि पशुओं का चरना (थोड़ा-थोड़ा ऊपर से खाना) गोचर कहलाता है। गति (भ्रमण) करना चर्या कहलाती है। जिस प्रकार गाय चरती है उसी प्रकार से थोड़ा-थोड़ा आहार लेने के लिए भ्रमण करना 'गोचर चर्या' कहलाती है।
गाय तो अदत्त भी ग्रहण करती है लेकिन साधक तो दिया हुआ ही ग्रहण करता है अतः आगे “भिक्खायरियाए' भिक्षारूप चर्या विशेषण आया है। अतः दोनों शब्दों का शामिल अर्थ होता है - गोचर चर्या रूप भिक्षाचर्या में। जिस प्रकार गाय वन में एक एक घास का तिनका जड़ से न उखाड़ कर ऊपर से ही खाती हुई घूमती है, अपनी क्षुधा निवृत्ति कर लेती है और गोचरभूमि एवं वन की हरियाली को भी नष्ट नहीं करती है उसी प्रकार मुनि भी किसी गृहस्थ को पीड़ा नहीं देता हुआ थोड़ा-थोड़ा आहार सभी के यहां से ग्रहण कर अपनी क्षुधा पूर्ति करता है। गाय के समान मुनि की इस चर्या को गोचरचर्या (गोचरी) कहते हैं। दशवैकालिक सूत्र अध्ययन १ में इसके लिए मधुकर - भ्रमर की उपमा दी है। भ्रमर भी फूलों को कुछ भी हानि पहुंचाए बिना थोड़ा-थोड़ा रस ग्रहण कर आत्मतृप्ति कर लेता है। .
__ यहां पर 'गोचरचर्या' में प्रयुक्त गो शब्द से 'गाय' की प्रमुखता से सभी शाकाहारी पशुओं का ग्रहण करना चाहिये। सभी शाकाहारी पशुओं के खाने की चर्या (विधि) गाय के -समान ही होती है। अर्थात् - 'गो' शब्द को व्यक्तिवाचक नहीं समझकर 'जातिवाचक' समझना चाहिए। दशवैकालिक सूत्र के अध्ययन १ में आये हुए 'मधुकर' शब्द से 'भ्रमर' की प्रमुखता (उपलक्षण) से सभी कीटों (फूलों से रस ग्रहण करने वाले) का ग्रहण करना चाहिए। इसे भी 'जातिवाचक' शब्द के रूप में समझना चाहिए। 'गधे' का खाना भी गाय के समान ही होता है। सूअर, घास आदि की जड़ों को उखाड़ कर खाता है। ऐसा पूज्य बहुश्रुत गुरु भगवन्तों का फरमाना है।
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