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प्रतिक्रमण का शाब्दिक अर्थ है, पुन:लौटना। प्रश्न होता है, कौन से स्थान से, कहाँ से लौटना? इसका समाधान है, विभाव दशा से स्वभाव दशा में, अशुभ योग से शुभ योग में लौटना। मिथ्यात्व, प्रमाद, अव्रत, कषाय और अशुभ योग आत्मा के ऐसे भयंकर शत्रु हैं, जो अनादि काल से आत्मा के साथ लगे हुए हैं, वे सावधानी रखते हुएं आत्मा को अपने जाल में फंसा ही लेते हैं। इन पांचों में से किसी कारण के प्रभाव से साधक के गृहीत व्रत, नियम मर्यादा में अतिक्रमण होना स्वाभाविक है। ऐसी स्थिति में साधक प्रातः और संध्या दोनों समय अपनी आत्म साक्षी से अन्तर्निरीक्षण करे, यदि किसी अकरणीय स्थान का उसके द्वारा सेवन हो गया हो, तो उस स्थान की वह आलोचना, निंदा आदि के द्वारा शुद्धिकरण कर लेता है। कदाच दोष न भी लगा हो तो प्रतिक्रमण, गृहित व्रतों को पुष्टि प्रदान करता है। आगमकार महर्षि प्रतिक्रमण को ऐसी औषधि बतलाई है, जो रोग होने पर उससे मुक्त करती है और रोग न होने की अवस्था में उसके शरीर को पोष्टिकता प्रदान करती है। ___वास्तव में कुशल व्यापारी वही होता है, जो प्रतिदिन अपनी आमदनी और खर्च का
लेखा-जोखा रखता है, दिन भर में उसे कितनी आमदनी हुई। जिसे अपनी आमदनी का ज्ञान नहीं, जो अंधाधुंध व्यापार में लगा रहता है। वह सफल व्यापारी नहीं हो सकता, उसे अंततोगत्वा पछताना ही पड़ता है। ठीक इसी प्रकार जो साधक अपने प्रतिदिन की संयम चर्चा का अवलोकन नहीं करता और अपने द्वारा हुई स्खलानाओं का परिमार्जन नहीं करता वह भी अपने लक्ष्य से भटक जाता है। प्रतिक्रमण साधक के साधना जीवन की एक ऐसी डायरी है, जिसमें वह प्रतिदिन अपने व्रतों में हुए अतिक्रमण की नोंध कर उसका सुबह-शाम दोनों टाईम प्रतिक्रमण के द्वारा शुद्धिकरण कर सकता है। इस प्रकार प्रतिक्रमण जीवन को सुधारने का श्रेष्ठ साधन है। इसे आध्यात्मिक जीव की धुरी कहा जा सकता है।
५. कायोत्सर्ग आवश्यक - कायोत्सर्ग आवश्यक सूत्र का पांचवाँ अंग है। दो शब्दों के संयोग से इसकी व्युत्पत्ति हुई है-(काय+उत्सर्ग) जिसका तात्पर्य है काया का त्याग। __यहाँ काया त्याग से आशय शारीरिक चंचलता और देह आसक्ति त्याग से है। यानी देह में रहते हुए, देहातीत होना। इसमें शरीर की ममता का त्याग यानी अतमुखी बन कर आत्मावलोकन करना। आत्मावलोकन करने पर उसे शरीर और आत्मा के पृथक् अस्तित्त्व का
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