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स्तुति कीर्तन करने से वासनाएं शान्त होती, हृदय शान्त और पवित्र बनता है । इन उत्तम पुरुषों की स्तुति करने से साधक के जीवन में पोरुष जागृत होता है, उपसर्ग - परीषह को समभाव पूर्वक सहन की करने की शक्ति विकसित होती है, इसलिए समत्व भाव एवं आध्यात्मिक शक्ति के विकास हेतु आवश्यक सूत्र के छह अंगों में इसका दूसरा स्थान रखा गया है।
३. वंदना आवश्यक आवश्यक सूत्र में चतुर्विंशतिस्तव के पश्चात तीसरा स्थान गुरु वंदना का है। देव पद में तीर्थंकर प्रभु की स्तुति के बाद अपने प्रत्यक्ष उपकारी गुरु, जिन्होंने संसार के दावानल से निकाल कर संयम के अति शुभ मार्ग पर आरूढ़ होने की प्ररेणा प्रदान की। अत एव साधक को अपने उपकारी गुरु भगवन्त के श्री चरणों में मन-वचन और काया से समर्पित होकर वंदन करना चाहिए। जैन आगम साहित्य में विनय को धर्म का मूल कहा है। जो शिष्य अन्तर हृदय से जितना अपने गुरु ( रत्नादि) का विनय कर उनके चित्त की आराधना करेगा, उतना ही उसके ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों का विकास होगा। जिस प्रकार पानी में डाली गई तेल की बूंद का विस्तार होता है, उसी प्रकार वंदना विनय 1. करने से शिष्य के जीवन का विकास निरन्तर बढ़ता चला जाता है ।
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वंदन करने से अहंकार का नाश एवं विनय गुण प्रकट होता है। साथ ही नीच गोत्र रूप बंधे कर्मों का क्षय और उच्च गोत्र कर्म का बंध एवं सौभाग्य नाम का उपार्जन होता है । यह सब फल वंदन कर्त्ता को तब ही प्राप्त होता जब वह वंदन सद्गुणों के धारक सद्गुरु जो द्रव्य और भाव चारित्र से सम्पन्न हो तथा शिष्य द्वारा बिना किसी लोभ, लालच, भय, प्रलोभन, प्रतिष्ठा के द्रव्य और भाव रूप वंदना की जाय। इसके अलावा वंदना के जो बत्तीस दोष आगम में बतलाये उनका भी साधक को टाला करना आवश्यक है, तभी साधक को वंदन का सही लाभ मिल सकता है। इस प्रकार मन, वचन, काया के द्वारा सद्गुरु को वंदन करने से साधक के आवश्यक के तीसरे अंग की आराधना निर्मल, शुद्ध बनती है।
४. प्रतिक्रमण आवश्यक यह आवश्यक सूत्र का चतुर्थ एवं प्रमुख अंग है। जीव अनादि काल से मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग रूपी रोगों से घिरा हुआ है, जिसके कारण विषय वासना इसमें अपना प्रभुत्व जमाये बैठे हुए हैं। अत एव सावधानी रखते हुए भी इस जीव के द्वारा समय-समय पर इनका सेवन होना स्वाभाविक है। उन का परिष्कार प्रतिक्रमण के द्वारा किया जाता है।
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