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ज्ञान होता है आत्मा अजर-अमर अविनाशी, अनन्त शक्ति का पुंज है। जबकि शरीर क्षणभंगुर नाशवान् है। कायोत्सर्ग की निरन्तर साधना से अन्तर्मानस में बल का संचार होता है, परिणाम स्वरूप साधक का जीवन इतना दृढ़ संकल्पी बन जाता है कि उसके समक्ष मनुष्य, तिर्यंच, देव सम्बन्धी के कोई उपसर्ग उपस्थित होने पर भी वह विचलित नहीं होता।
कायोत्सर्ग साधना जीवन को अधिकाधिक परिष्कृत करने के लिए किया जाता है। इस बात की सिद्धि कायोत्सर्ग के इस सूत्र से होती है "तस्स उत्तरीकरणेणं, पायच्छित्त करणेणं विसोहीकरणेणं, विसल्लीकरणेणं पावाणं कम्माणं णिग्घायणट्ठाए ठामि काउस्सग्गं" यानी आत्मा पर लगे मैल (पाप) को विशेष शुद्ध करने के लिए, पापों का नाश करने के लिए कायोत्सर्ग करता हूँ। वैसे तो प्रतिक्रमण से पापों की आलोचना करने से शुद्धि हो ही जाती है, फिर यदि कोई दाग रह जाता है, तो उसे कायोत्सर्ग के द्वारा उसे हटाया जाता है। इसलिए अनुयोगद्वार सूत्र में कायोत्सर्ग को व्रणचिकित्सा कहा है। साधना जीवन में लगे दोष रूपी घावों को ठीक करने के लिए कायोत्सर्ग एक प्रकार का मरहम है। जो अतिचार रूपी घावों को ठीक कर डालता है। इसी विशेष शुद्धि के लक्ष्य से संयमी साधक को बार-बार कायोत्सर्ग करने का आगम में विधान किया गया है।
६. प्रत्याख्यान आवश्यक - यह आवश्यक सूत्र का छठा एवं अन्तिम अंग है, सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग के द्वारा आत्मा पर लगे हुए दोषों का परिमार्जन किया जाता है। जबकि प्रत्याख्यान आवश्यक अंग में इच्छाओं का निरुन्धन किया जाता है। मानव की इच्छायें असीम हैं, जिन्हें पाने के लिए चित्त में अशांति बनी रहती है। उस अशान्ति को समाप्त करने का एक मात्र उपाय इच्छाओं का निरुन्धन यानी प्रत्याख्यान है। प्रत्याख्यान धारण करने के पश्चात् इच्छाएं सीमित हो जाती है, जिससे चित्त में समाधि के साथ आस्रव का निरुन्धन हो जाता है। उत्तराध्ययन सूत्र के २९ वें अध्ययन में प्रत्याख्यान से • जीव को क्या लाभ होता है, इसके लिए बतलाया गया है।
पच्चक्खाणेणं आसवदाराई णिरुंभइ, पच्चक्खाणेणं इच्छाणिरोह जणयह इच्छाणिरोह गए य णं जीवे सव्वदव्वेसु विणीयतण्हे सीइभूए विहरइ॥3॥
अर्थ - प्रत्याख्यान करने से आस्रव द्वारों का निरोध होता है, प्रत्याख्यान करने से इच्छा
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