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प्रतिक्रमण - आलोचना सूत्र
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इरियावहियं (ईर्यापथिकी) - आचार्य नमि ने प्रतिक्रमण सूत्र की वृत्ति में ईर्यापथिकी शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है - १. "ईरणं ईर्यागमनमित्यर्थः तत् प्रधानः पन्था ईर्या पथस्तत्र भवा विराधना ईर्यापथिकी।" अर्थात् ईर्या का अर्थ गमन है गमन युक्त जो पथ मार्ग है वह ईर्यापथ कहलाता है। ईर्यापथ में होने वाली क्रिया (विराधना) ईर्यापथिकी होती है। ___ आचार्य श्री हेमचन्द्र एक और भी अर्थ कहते हैं - २. "ईर्या पथः साध्वाचारः तत्र भवा ई-पथिकी" अर्थात् ईर्यापथ का अर्थ श्रेष्ठ आचार और उसमें गमनागमनादि के कारण असावधानी से जो दूषण रूप क्रिया हो जाती है उसे ईर्यापथिकी कहते हैं।
आचार्य श्री हरिभद्र ने उत्तिंग आदि शब्दों के अर्थ इस प्रकार किये हैं - १. उत्तिंग - गर्दभाकृति जीव (गद्दहिय) अथवा कीड़ी नगर।
२. दग-मट्टी - दग मृतिका - मिट्टी युक्त पानी। दग से अप्काय और मृतिका शब्द से पृथ्वीकाय का ग्रहण किया है।
३. अभिहया - पैर से ठोकर लगाना या उठा कर फैंक देना। .. ४..वत्तिया - ढेर किया हो अथवा धूलि से ढके हो, रोके हो। . ५..संघट्टिया - थोड़ा सा स्पर्श किया हो।
__ अभिहया से जीवियाओ ववरोविया तक जीव विराधना के दस भेद बताये हैं। जीव विराधना से बचने का उपाय है - यतना। यतना, जैन धर्म का प्राण है। यतना से ही साधना सम्यक् बनती है। यतनापूर्वक प्रवृत्ति करने से जीव पाप कर्म का बंध नहीं करता है। दशवैकालिक सूत्र अध्ययन ४ में भी कहा है -
जयं चरे जयं चिट्ठे, जयमासे जयं सए। जय भुजतो भासतो, पावकम ण बंधइ॥
अर्थात् यतनापूर्व चलने, खड़े होने, बैठने, सोने, खाने और बोलने वाला जीव पाप कर्म का बंध नहीं करता है। क्योंकि पाप कर्म बंध का मूल कारण अयतना ही है। अयतना - असावधानी से आवश्यक प्रवृत्ति के लिए इधर उधर गमनागमन के कारण जीवों को पीड़ा पहुंची हो उसके लिये ही प्रस्तुत पाठ में गुरु महाराज के समक्ष आलोचना की गयी है इसीलिये इसे आलोचना सूत्र भी कहते हैं।
इस प्रकार गमनागमन संबंधी अतिचार कह कर सूत्रकार अब निद्रा दोष निवृत्ति का पाठ कहते हैं -
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