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आवश्यक सूत्र - चतुर्थ अध्ययन
बेइंदिया - दो इन्द्रिय वाले, तेइंदिया - तीन इन्द्रिय वाले, चउरिदिया - चार इन्द्रिय वाले, पंचिंदिया - पाँच इन्द्रिय वाले, जे - जो, जीवा - जीव हैं (उन्हें), विराहिया - पीड़ित किये हों (विराधना की हो), अभिहया - सम्मुख आते हुए को हना हो, वत्तिया - धूल
आदि से ढंका हो, लेसिया - मसला हो, संघाइया - इकट्ठा किया हो, संघट्टिया - संघट्टा (छूआ) किया हो, परियाविया - परिताप (कष्ट) पहुँचाया हो, किलामिया - किलामना उपजाई हो, मृततुल्य किया हो, उहविया - उद्वेग उपजाया हो या भयभीत किया हो, ठाणाओएक स्थान से, ठाणं - दूसरे स्थान पर, संकामिया - रखा हो, जीवियाओ - जीवन से, ववरोविया - रहित किया हो, तस्स - उसका, दुक्कडं - पाप, मि - मेरा, मिच्छा - मिथ्या (निष्फल) हो।
भावार्थ - शिष्य कहता है कि हे गुरु महाराज ! आप इच्छापूर्वक आज्ञा दीजिये कि मैं ईर्यापथिकी क्रिया का प्रतिक्रमण करूँ । गुरु की अनुमति पाने पर शिष्य कहता है कि आपकी आज्ञा प्रमाण है। मैं ईर्यापथिकी क्रिया का प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ अर्थात् मार्ग में चलने से हुई विराधना से निवृत्त होना चाहता हूँ। मार्ग में जाते-आते किसी प्राणी को दबाया हो, सचित्त बीज तथा हरी वनस्पति को कुचला हो, ओस, कीड़ी नगरा, पाँच वर्ण की लीलन फूलन, सचित्त जल, सचित्त मिट्टी और मकड़ी के जालों को रौंदा (कुचला) हो। मैंने किन्हीं जीवों की हिंसा की हो जैसे-एक इन्द्रिय वाले - पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति; दो इन्द्रिय वाले - शंख, सीप, गंडोल, लट आदि; तीन इन्द्रिय वाले - कुंथुआ, नँ, लीख, कीड़ी, खटमल, चींचड आदि; चार इन्द्रिय वाले - मक्खी, मच्छर, भंवरा, बिच्छू, टिड्डी, पतंगिया आदि; पाँच इन्द्रिय वाले - मनुष्य, तिर्यंच-जलचर, स्थलचर और खेचर आदि । सम्मुख आते हुए उन्हें मारा हो, धूल आदि से ढंका हो, पृथ्वी पर या आपस में रगड़ा हो, इकट्ठे करके इन्हें दुःख पहुँचाया हो तथा छू कर पीड़ा दी हो, क्लेश पहुँचाया हो, मृत तुल्य (मरने सरीखा) किया हो, इनका जीवन नष्ट किया हो, तो इससे होने वाला मेरा पाप निष्फल हो अर्थात् जाने-अनजाने विराधना से कषाय द्वारा मैंने जो पाप कर्म बाँधा है उसके लिये मैं हृदय
नानाप करता हूँ जिससे निर्मल परिणाम द्वारा पापकर्म शिथिल हो जावे और मुझे उसका
त सूत्र में गमनागमन आदि प्रवृत्तियों में किस प्रकार और किन किन ती है उसका अत्यंत सूक्ष्मता से वर्णन किया गया है।
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