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आवश्यक सूत्र - चतुर्थ अध्ययन
समाधान - हम प्रतिदिन अपने घरों में झाडू लगाते हैं और कूडा साफ करते हैं चाहे कितनी ही सावधानी से झाडू दी जाय फिर भी थोड़ी बहुत धूल रह ही जाती है जो विशिष्ट पर्व - त्यौहार आदि के प्रसंग पर दूर - साफ कर ली जाती है। इसी प्रकार प्रतिदिन उभयकाल प्रतिक्रमण करते हुए भी कुछ भूलों का प्रमार्जन करना बाकी रह ही जाता है, जिसके लिए पाक्षिक प्रतिक्रमण किया जाता है। पाक्षिक प्रतिक्रमण के बाद भी जो भूलें रह जाय उसके लिए चातुर्मासिक प्रतिक्रमण का विधान है। चातुर्मासिक प्रतिक्रमण से भी बची रही हुई अशुद्धि का सांवत्सरिक प्रतिक्रमण से प्रमार्जन किया जाता है। ... ___निम्न पांच प्रकार का प्रतिक्रमण भी प्रकारांतर से कहा गया है -
१. आस्रवद्वार प्रतिक्रमण - आस्रव के द्वारों से निवृत्त होना, पुनः इनका सेवन नहीं करना आस्रवद्वार प्रतिक्रमण है।
२. मिथ्यात्व प्रतिक्रमण - उपयोग अनुपयोग या सहसा कारणवश आत्मा के मिथ्यात्व परिणाम में प्राप्त होने पर उससे निवृत्त होना अर्थात् ज्ञात या अज्ञात रूप में यदि कभी मिथ्यात्व का प्रतिपादन किया हो, मिथ्यात्व में परिणति की हो तो उसकी आलोचना कर पुनः शुद्ध सम्यक्त्व भाव में उपस्थित होना।
३. कषाय प्रतिक्रमण - क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषाय परिणाम से आत्मा को निवृत्त करना।
४. योग प्रतिक्रमण - मन, वचन, काया के अशुभ व्यापार प्राप्त होने पर उनसे आत्मा को पृथक् करना योग प्रतिक्रमण है।
५. भाव प्रतिक्रमण - आश्रवद्वार, मिथ्यात्व, कषाय और योग प्रतिक्रमण में तीन करण तीन योग से प्रवृत्ति करना अर्थात् मन वचन और काया से मिथ्यात्व, कषाय आदि दुर्भावों में न स्वयं गमन करना, न दूसरों से गमन कराना और न ही गमन करने वालों का अनुमोदन करना, भाव प्रतिक्रमण है।
प्रतिक्रमण ध्रुव व अध्रुव के भेद से दो प्रकार का है - भरत ऐरवत क्षेत्र में पहले और अंतिम तीर्थंकर के शासनकाल में अपराध हुआ हो या नहीं भी हुआ हो फिर भी उभयकाल अवश्यमेव प्रतिक्रमण करने का विधान होने से 'ध्रुव' कहलाता है अर्थात् प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों के लिये यह स्थित कल्प है।
. अविरति और प्रमाद का आस्रवद्वार में समावेश हो जाता है।
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