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प्रतिक्रमण - प्रतिक्रमण के भेद
प्रतिक्रमण से ही कर्म निर्जरा रूप वास्तविक फल की प्राप्ति होती है। अत: द्रव्य प्रतिक्रमण से भाव प्रतिक्रमण की ओर अग्रसर होना चाहिये।
काल के भेद से प्रतिक्रमण तीन प्रकार का कहा गया है - १. भूतकाल में लगे दोषों की आलोचना करना। २. वर्तमान काल में लगने वाले दोषों से संवर द्वारा बचना। ३. प्रत्याख्यान द्वारा भावी दोषों को अवरुद्ध करना। शंका - प्रतिक्रमण तो भूतकालिक माना जाता है फिर उसे त्रिकाल विषयक कैसे कहा है ? समाधान - प्रतिक्रमण का अर्थ, हैं - अशुभ योगों से निवृत्त होना।
आलोचना निंदा द्वारा भूतकाल संबंधी अशुभयोग से निवृत्ति होती है अतः यह भूतकाल प्रतिक्रमण है। संवर के द्वारा वर्तमान काल में अशुभ योगों से निवृत्ति होती है अतः यह वर्तमान काल का प्रतिक्रमण है और प्रत्याख्यान द्वारा भावी अशुभयोगों की निवृत्ति होती है अतः यह भविष्यकालीन प्रतिक्रमण कहा जाता है। इस तरह प्रतिक्रमण द्वारा तीनों कालों में अशुभयोगों से निवृत्ति होती है। अतः प्रतिक्रमण त्रिकाल के लिये होता है, ऐसा कहने में कोई बाधा नहीं है।
विशेषकाल की अपेक्षा प्रतिक्रमण के पांच भेद इस प्रकार भी किये गये हैं -
१. दैवसिक - प्रतिदिन सायंकाल - सूर्यास्त के समय से लगभग एक मुहूर्त तक या अधिकतम सवा घण्टे तक के काल में दिन भर के पापों की आलोचना करना।
२. रात्रिक - रात्रि के अंत में अर्थात् कुछ रात्रि (एक मुहूर्त या अधिकतम सवा घण्टे जितनी) शेष रहने पर रात्रि के पापों की आलोचना करना।
३. पाक्षिक - महीने में दो बार - पाक्षिक पर्व के दिन - १५ दिन में लगे हुए पापों की आलोचना करना।
४. चातुर्मासिक - कार्तिकी पूर्णिमा, फाल्गुनी पूर्णिमा और आषाढ़ी पूर्णिमा को चार महीने में लगे हुए पापों की आलोचना करना।
५. सांवत्सरिक - प्रत्येक वर्ष भाद्रपद शुक्ला पंचमी - संवत्सरी के दिन वर्ष भर के पापों की आलोचना करना। ..
शंका - प्रतिदिन उभयकाल प्रतिक्रमण करने से दैवसिक और रात्रिक अतिचारों की शुद्धि प्रतिदिन हो जाती है फिर ये पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण क्यों किए जाते हैं ?
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