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प्रतिक्रमण - प्रतिक्रमण आवश्यक क्यों है?
महाविदेह क्षेत्र में और इन्हीं भरत और ऐरवत क्षेत्र में मध्य के २२ तीर्थंकरों के शासन काल में कारण उपस्थित हो तब प्रतिक्रमण करने का विधान होने से 'अध्रुव' कहलाता है।
. प्रतिक्रमण आवश्यक क्यों है? प्रमादवश ग्रहण किए हुए व्रतों में अतिचार दोष लगने की संभावना रहती है। जब तक दोषों को दूर नहीं किया जाता तब तक आत्मा शुद्ध नहीं बनती। प्रतिक्रमण के द्वारा दोषों की आलोचना की जाती है, आत्मा को अशुभ भावों से हटा कर शुभ भावों की तरफ ले जाया जाता है। प्रतिक्रमण के माध्यम से ही साधक अपनी भटकी हुई आत्मा को स्थिर करता है। भूलों को ध्यान में लाता है और मन, वचन, काया के पश्चात्ताप की अग्नि में आत्मा को निखारता है। अत: आत्मशुद्धि के लिए प्रतिक्रमण आवश्यक है।
जैसे मार्ग में चलते हुए अनाभोग, प्रमाद आदि से पैर में कांटा लग जाता है तो उसे निकालना आवश्यक होता है। जब तक कांटा नहीं निकाला जाता है तब तक ठीक ढंग से चला नहीं जा सकता है। कभी कभी कांटा नहीं निकलने पर पैरों में विष फैल जाता है और चलने की शक्ति नष्ट हो जाती है वैसे ही सम्यग्ज्ञानादि ग्रहण करने के पश्चात् प्रमाद, अविवेक आदि से अतिचार रूपी कांटे लग जाते हैं। जब तक उन अतिचारों को दूर नहीं किया जाता है तब तक जीव मोक्ष के निकट नहीं हो पाता है। अतिचारों की शुद्धि नहीं होने पर जीव विराधक बन जाता है, यहां तक की सम्यक्त्व आदि से भी भ्रष्ट हो जाता है अतः प्रतिक्रमण आवश्यक है। ___ प्रतिक्रमण व्रतों की आलोचना के सिवाय निम्न कारणों से भी किया जाता है -
१. जिन कार्यों को करने की मना है, उन्हें किया हो। २. करने योग्य कार्य नहीं किया हो। ३. वीतरागी के वचनों पर श्रद्धा नहीं रखी हो। ४. सिद्धान्त विपरीत प्ररूपणा की हो।
कर्मबंधन से छूटकारा पाने के लिये यह आवश्यक है कि जीव पूर्वकृत कर्मों का क्षय करे और नवीन कर्मों का बन्ध नहीं करे। प्रतिक्रमण द्वारा पूर्वकृत पापों की निन्दा की जाती है, आलोचना की जाती है और मन, वचन, काया से प्रायश्चित्त (पश्चात्ताप) किया जाता है अतः कर्मों की निर्जरा होती है और भविष्य में कर्म बंधन रुकता है। प्रतिक्रमण से -
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