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सामायिक - ज्ञानातिचार सूत्र
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७. जोगहीणं (योगहीनं) - योगहीन अर्थात् सूत्र पढ़ते समय. मन, वचन और काया को जिस प्रकार स्थिर रखना चाहिये, उस प्रकार नहीं रखना। योगों को चंचल रखना, अशुभ व्यापार में लगाना और ऐसे आसन से बैठना, जिससे शास्त्र की आशातना हो, योगहीन दोष है। ८. घोसहीणं (घोषहीनं) - (घोषहीन अर्थात् उदात्त० अनुदात्त स्वरित* सानुनासिक* और निरनुनासिक आदि दोषों से रहित पाठ पढ़ना। किसी भी स्वर या व्यञ्जन को घोष के अनुसार ठीक न पढ़ना अथवा ज्ञानदाता जिस शब्द, छन्द पद्धति से उच्चारण करावे वैसा उच्चारण करके नहीं पढ़ना घोषहीन दोष है। उपरोक्त तीनों अतिचार, पढ़ने की अविधि संबंधी अतिचार है। विनयहीनता से प्राप्त ज्ञान यथासमय काम नहीं आता - सफल नहीं होता। योगहीनता से ज्ञान की प्राप्ति शीघ्र नहीं होती, शुद्ध आवर्तन नहीं होता, आलोचना प्रतिक्रमण आदि क्रियाएं सफल नहीं होती। घोषहीनता से सूत्र का आत्मा पर पूर्ण प्रभाव नहीं पड़ता। अतः तीनों अतिचारों को दूर करना चाहिये। ९. सुटुदिण्णं (सुष्ठुदत्तं) - यहां 'सुठु' शब्द का अर्थ है - शक्ति या योग्यता से अधिक। शिष्य में शास्त्र ग्रहण करने की जितनी शक्ति है उससे अधिक पढ़ाना 'सुठुदिण्णं' कहलाता है। ... १०. दुठ्ठपडिच्छियं (दुष्ठुप्रतीष्ठम्) - आगम को बुरे भाव से ग्रहण करना। ११. अकाले कओ सज्झाओ (अकालेकृतः स्वाध्यायः) - जिस काल में (चार संध्याओं में) सूत्र स्वाध्याय नहीं करनी चाहिये या जो सूत्र जिस काल (दिन रात्रि में दूसरे तीसरे प्रहर) में नहीं पढ़ना चाहिए, उस काल में स्वाध्याय करने को अकाल स्वाध्याय कहते हैं। .
. उदात्त - ऊंचे स्वर से पाठ करना। ® अनुदात्त - नीचे स्वर से पाठ करना। * स्वरित - मध्यम स्वर से पाठ करना। * सानुनासिक - नासिका और मुख दोनों से उच्चारण करना। * निरनुनासिक - बिना नासिका के केवल मुख से उच्चारण करना।
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