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आवश्यक सूत्र - प्रथम अध्ययन
२. वच्चामेलियं (व्यत्यानेडितं) - सूत्रों में भिन्न-भिन्न स्थानों पर आये हुए समानार्थक पदों को एक साथ मिला कर पढना वच्चामेलियं अतिचार है। शास्त्र के भिन्न-भिन्न पदों को एक साथ पढने से अर्थ बिगड़ जाता है। विराम आदि लिये बिना पढ़ना अथवा अपनी बुद्धि से सूत्र के समान सूत्र बना कर आचारांग आदि सूत्रों में डालकर पढने से भी यह अतिचार लगता है। ३. हीणक्खरं (हीनाक्षरं) - हीनाक्षर पढना यानी इस प्रकार से पढना कि जिससे कोई अक्षर छूट जाय जैसे 'णमो आयरियाण' के स्थान पर 'य' अक्षर कम करके 'णमो आरियाण' पढना। ४. अच्चक्खरं (अत्यक्षरं) - अधिक अक्षर युक्त पढना - पाठ के बीच में कोई अक्षर अपनी तरफ से मिला देना जैसे 'णमो उवज्झायाण' में 'रि' मिला कर 'णमो उवज्झायारियाण' पढना। ५. पयहीणं (पदहीनं) - अक्षरों के समूह को 'पद' कहते हैं। जिसका कोई न कोई अर्थ अवश्य हो वह 'पद' कहलाता है। किसी पद को छोड़कर पढ़ना पयहीणं अतिचार है जैसे - ‘णमो लोएसव्वसाहूर्ण' में 'लोए' पद कम करके ‘णमो सव्वसाहूर्ण' पढ़ना। उपरोक्त पांचों अतिचार उच्चारण संबंधी अतिचार हैं। उच्चारण की अशुद्धि से कई हानियां हैं। यथा - १. कई बार अर्थ सर्वथा नष्ट हो जाता है २. विपरीत अर्थ हो जाता है ३. कई बार आवश्यक अर्थ में कमी रह जाती है ४. कई बार अधिकता हो जाती है ५. कई बार सत्य किंतु अप्रासंगिक अर्थ हो जाता है। आदि अतः उच्चारण अत्यंत शुद्ध करना चाहिये। उच्चारण शुद्धि के लिए - १. सूत्र के एक एक अक्षर मात्रादि को ध्यान से पढ़ना चाहिये २. ध्यान से कण्ठस्थ करना चाहिये और ३. ध्यान से फेरना चाहिये ऐसा करने से उच्चारण शुद्ध होता है। ६. विणयहीणं (विनयहीनं) - विनयहीन अर्थात् शास्त्र तथा पढ़ाने वाले का समुचित विनय न करना। ज्ञान और ज्ञानदाता के प्रति, ज्ञान लेने से पहले, ज्ञान लेते समय तथा ज्ञान लेने के बाद में विनय (वंदनादि) नहीं करके अथवा सम्यग् विनय नहीं करके पढ़ना 'विणयहीणं' अतिचार है।
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