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परिमार्जन कर सकता है। पांचवां स्थान कायोत्सर्ग का है। इसमें तन और मन के योगों को स्थिर किया जाता है । छट्ठा स्थान प्रत्याख्यान का है। जिस साधक का तन-मन स्थिर होता है वही इच्छाओं का निरुन्धन कर प्रत्याख्यान की भूमिका प्राप्त कर सकता है । अत एव इसका स्थान अन्तिम रखा गया है । इस प्रकार ये छह आवश्यक आत्म-निरीक्षण, आत्म-परीक्षण एवं आत्मोत्कर्ष के श्रेष्ठ साधन है। अब प्रत्येक आवश्यक का अपनी-अपनी विशेषता के साथ विवेचन किया जायेगा ।
१. सामायिक आवश्यक
आवश्यक सूत्र के जो छह अंग हैं, उसमें सामायिक का पहला स्थान है। क्योंकि जैन दर्शन में सामायिक को सम्पूर्ण साधना का सार कहा गया है। क्योंकि अतीत काल में जो भी साधक मुक्त हुए वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा जो मुक्त हो रहे हैं और भविष्य में जो भी मुक्त होगे उनकी मुक्ति होने का एक मात्र आधार सामायिक की साधना ही रही । पाँच चारित्र कहे गये हैं, उनमें से चार चारित्र तो सभी तीर्थंकरों के शासन पाये भी जाते हैं और न भी पाये जाते हैं यानी चार चारित्र की तो सभी तीर्थंकरों के समय मिलने की भजना है, किन्तु सामायिक चारित्र की तो प्रत्येक तीर्थंकर के समय में पाने की नियमा है।
भगवती सूत्र शतक १ उद्देशक ९ में भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के कालास्यवेषिपुत्र अनगार ने भगवान् महावीर स्वामी की परंपरा के स्थविर भगवन्त से पूछा सामायिक क्या है ? और सामायिक का क्या अर्थ है ? स्थविर भगवन्तों ने इसके उत्तर में फरमाया
"हमारी आत्मा ही सामायिक है और आत्मा ही सामायिक का अर्थ है ।"
इसका आशय यह है कि जब आत्मा समस्त पापमय प्रवृत्तियों का त्याग कर समभाव (समत्व भाव) में रमण करता है, तब सामायिक होती है। यानी कंषाय एवं पाप वृत्तियों का त्याग कर आत्म भाव में रमण करना ही सामायिक है। इसका दूसरा आशय यह भी है आत्मा का बाह्य (विषम) दृष्टि का त्याग कर अर्न्तदृष्टि (समत्व) अपनाना ही सामायिक है ।
सामायिक की साधना कोई सामान्य साधना नहीं प्रत्युक्त अति उत्कृष्ट साधना है जिस साधक ने इसकी सही साधना कर ली, उसका संसार परिभ्रमण या तो समाप्त हो जाता अथवा परिमित तो अवश्य हो ही जाता है । सम्बोध प्रकरण में बतलाया गया है
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