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प्रस्तावना
जैन आगम साहित्य जगत् में आवश्यक सूत्र का विशेष ही नहीं अपितु अति महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के संयमी साधकों के लिए प्रतिदिन सुबह और सायंकाल प्रतिक्रमण (आवश्यक) करना अनिवार्य है । यदि कोई साधक इसका उल्लंघन करता है, तो वह अपने श्रमण धर्म से च्यूत माना जाता है क्योंकि आवश्यक निर्युक्ति में प्रथम और चरम तीर्थंकर के शासन में प्रतिक्रमण सहित धर्म प्ररूपित किया गया है। इसलिए संयमी साधक द्वारा दिन - रात्रि में चाहे किसी भी प्रकार के दोष का सेवन न भी हुआ तो भी उसके लिए प्रतिक्रमण करना अनिवार्य है। यह संयमी साधक की जीवन शुद्धि, दोष परिमार्जन का श्रेष्ठ साधन माना गया है । आगम साहित्य में आवश्यक को साधना का प्राण कहा है एवं सभी गुणों का इसमें निवास स्थान माना गया है।
आवश्यक जैन साधना का मुख्य अंग है। इसके अन्तर्गत साधक अपनी दैनिक प्रवृत्तियों का आत्मसाक्षी से अवलोकन करता हुआ स्खलनाओं का परिमार्जन कर शुद्धिकरण करता है। संयमी जीवन में अन्य आगमिकज्ञान की न्यूनाधिकता तो चल सकती है । परन्तु आवश्यक सूत्र का ज्ञान (कण्ठस्थ ) होना तो अनिवार्य है, क्योंकि प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर प्रभु का धर्म आवश्यक सूत्र सहित ही है। आवश्यक सूत्र की साधना के छह अंग है यथा १. सामायिक २. चतुर्विंशतिस्तव ३. वंदना ४. प्रतिक्रमण ५. कायोत्सर्ग ६. प्रत्याख्यान । आवश्यक सूत्र की साधना का जो क्रम दिया गया है, वह कार्य-कारण भाव की श्रृंखला पर अवस्थित है तथा पूर्ण वैज्ञानिक है। इसमें प्रथम स्थान सामायिक को दिया है। साधक के जीवन में सर्व प्रथम समता भाव का प्राप्त होना आवश्यक है। इसके बिना कोई भी साधना क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ सकता है। दूसरा स्थान वीतराग प्रभु के गुण कीर्तन नामक चतुर्विंशतिस्वत का है। जिसका हृदय सरल होगा उसी के मन में महापुरुषों के प्रति स्तुति करने की भावना जागृत होगी । तीसरा स्थान वंदना का है । अपने गुरु भगवन्तों के प्रति आदर भाव से वंदना भी वही करता है, जिसमें नम्रता - विनय का गुण प्रस्फुटित हुआ हो। चौथे स्थान पर प्रतिक्रमण है। समता, सरलता और विम्रता की पृष्ठ भूमि वाला साधक ही अपने दोषों को निहार कर उनका
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