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________________ [5] तिव्वत तवमाणो ज न वि निट्ठवइ जम्मकोडीहिं। तं सममावियचित्तो खवेइ कम खणद्धेणं ।।११९॥ भावार्थ - कोटि जन्म तक तीव्र तपश्चर्या से तपता हुआ जीव, जितने कर्मों को क्षय नहीं कर सकता, उतने कर्म समभाव युक्त (सामायिक सहित) चित्त वाला जीव, अर्द्ध क्षण में क्षय कर देता है। इसी सम्बोध प्रकरण में अल्प कालीन शुद्ध सामायिक साधना का फल इस प्रकार बतलाया गया है - दिवसे दिवसे लक्खं देइ सुवण्णस्स खंडियं एगो। एगो (इयरो) पुण सामाइयं करेइ ण पहुप्पए तस्स।।११।। अर्थ - कोई दानेश्वरी, प्रतिदिन लाख-लाख खाँडी सोने का दान करे और कोई अन्य जीव, सामायिक करे, तो दानेश्वरी का वह दान, सामायिक से बढ़ कर नहीं होता। सामाइयं कुर्णतो समभावं, सावओ य घडियदुर्ग। - आउं सुरेसु बंधड, इत्तियमित्ताई पलियाई।।११४॥ - अर्थ - दो घड़ी समभाव युक्त सामायिक करने वाला श्रावक, आगे कहे हुए पल्योपम जितने देव का आयुष्य बाँधता है। बाणवईकोडीओ लक्खा गुणसट्ठि सहस्स पणवीसं। णवसय पणवीसाए सतिहा अडभागपलियरस।।११५॥ अर्थ - बाणु करोड़ उनसठ लाख पच्चीस हजार नौ सौ पच्चीस पल्योपम और एक पल्योपम के आठ भाग में से तीन भाग सहित देव आयुष्य को बांधे। . अल्प कालिन शुद्ध सामायिक साधना का जब इतना फल है, तो फिर जो जीवन पर्यन्त इस की शुद्ध साधना - आराधना करते हैं, उनका तो मुक्ति गमन निश्चय है। आगमों में इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं। अन्तगडदशा में अर्जुन अनगार का ज्वलंत प्रमाण है। उन्होंने समत्व भाव की साधना से मात्र छह माह में ही मुक्ति प्राप्त कर ली। - उत्तराध्ययन सूत्र के ९वें अध्ययन में नमिराजर्षि फरमाते हैं - जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुञ्जए जिणे। एग जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ।।३४॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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