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आवश्यक सूत्र - प्रथम अध्ययन
९. त्याग - परिग्रह और संग्रह वृत्ति से मुक्त रहना। ममता का त्याग करना। १०. ब्रह्मचर्य - नववाड़ सहित विशुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करना।
समणाणं जोगाणं - श्रमण योग। श्रमण संबंधी योग = कर्त्तव्य को श्रमण योग कहते हैं।
आचार्य हरिभद्र कहते हैं - 'श्रामणयोगानाम् = सम्यक् प्रतिसेवन - श्रद्धानप्ररूपणालक्षणानां यत्खंडितम्' श्रमण का कर्तव्य यह है कि क्षमा आदि दशविध श्रमण धर्म का सम्यक् रूप से आचरण करना चाहिए, सम्यक् श्रद्धान = विश्वास रखना चाहिए और यथावसर सम्यक् प्ररूपण = प्रतिपादन भी करना चाहिये।
.. खंडियं-विराहियं - खण्डित, विराधित। खंडित और विराधित शब्द का कुछ विद्वान् अर्थ करते हैं कि 'एकदेशेन खण्डना' होती है और सर्वदेशेन विराधना' परंतु यह अर्थ संगत प्रतीत नहीं होता क्योंकि व्रत का पूर्णरूपेण सर्वदेशेन भंग (नाश) हो गया तो फिर प्रतिक्रमण के द्वारा शुद्धि किसकी की जाती है? अतः वास्तविक अर्थ यह है कि खण्डना अर्थात् देशतः (अल्प) भंग किया हो और विराधना अर्थात् अधिक मात्रा में भंग किया हो।
मिच्छामि दुक्कडं - मेरा दुष्कृत मिथ्या - निष्फल हो। आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी ने आवश्यक नियुक्ति में मिच्छामि दुक्कडं के एक-एक अक्षर का अर्थ इस प्रकार किया है -
"मि' त्ति मिउमद्दवत्ते, . "छ' त्ति य दोसाण छायणे होइ। . 'मि' त्ति य मेराए ठिओ, 'दु' त्ति दुगुंछामि अप्याणं॥ ६८६॥ 'क' त्ति कडं मे पावं 'ड' ति य डेवेमि तं उवसमेणं। एसो मिच्छा दुक्कड
पयक्खरत्थो समासे णं॥ ६८७॥ "मि' का अर्थ मृदुता और मादर्वता है। काय नम्रता को मृदुता और भाव नम्रता को मादर्वता कहते हैं। 'छ' का अर्थ असंयम योग रूप दोषों को छादन करना है अर्थात् रोक देना है। 'मि' का अर्थ मर्यादा है अर्थात् मैं चारित्र रूप मर्यादा में स्थित हूँ। 'दु' का अर्थ निन्दा है। मैं दुष्कृत करने वाले भूतपूर्व आत्मपर्याय की निन्दा करता हूँ। 'क' का भाव
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