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________________ सामायिक प्रतिक्रमण सूत्र समान साधक का हित करने के कारण भी इनको माता कहा जाता है ! समीचीन यतनापूर्वक प्रवृत्ति 'समिति' कहलाती है। इसके पांच भेद हैं १. ईर्यासमिति २. भाषा समिति ३. एषणा समिति ४. आदान भाण्ड मात्र निक्षेपणा समिति ५. उच्चार - प्रस्रवण - खेल - जल्ल-सिंघाण परिस्थापनिका समिति । योगों का सम्यक् निग्रह 'गुप्ति' कहलाता है। गुप्ति के तीन भेद इस प्रकार हैं १. मनो गुप्ति २. वचन गुप्ति और ३. काय गुप्ति । वहं बंभचेर गुत्तीणं - नवब्रह्मचर्य गुप्ति । ब्रह्म का अर्थ है परमात्मा । आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए जो चर्या - गमन किया जाता है उसका नाम 'ब्रह्मचर्य' है । शारीरिक और आध्यात्मिक सभी शक्तियों का आधार ब्रह्मचर्य है । ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए नौ बातें आवश्यक हैं, वे ही नौ गुप्ति हैं। उत्तराध्ययन सूत्र के १६वें अध्ययन में इन गुप्तियों का वर्णन किया गया है। नाम इस प्रकार है। १. विविक्त वसति सेवन २. स्त्रीकथा परिहार ३. निषद्यानुपवशन ४ स्त्री अंगोपांगदर्शन वर्जन ५. कुड्यायान्तर शब्द श्रवणादि वर्जन ६. पूर्व भोगाऽस्मरण ७. प्रणीतभोजन त्याग ८. अतिमात्र भोजन त्याग ९. विभूषा वर्जन । दसविहे समणधम्मे दशविध श्रमण धर्म । श्रमेण साधु को कहते हैं । उसका क्षान्ति, मुक्ति आदि दशविध धर्म 'श्रमण धर्म' कहलाता है अर्थात् साधु साध्वियों का आत्मविकास करके मुक्ति प्राप्त कराने वाली साधना को 'श्रमण - धर्म' कहते हैं । इनके दस भेदों का वर्णन स्थानांग सूत्र के दसवें स्थान में इस प्रकार किया है. -- १. क्षमा - क्रोध पर विजय प्राप्त कर शांत रहना । २. मुक्ति - लोभ लालच से मुक्त रहना । ३. आर्जव - माया कपट का त्याग कर सरल बनना । ४. मार्दव - मान-अहंकार का त्याग कर नम्र होना । - - - Jain Education International - ५. लाघव लघुता - हलकापन । वस्त्रादि बाह्य उपधि और संसारियों के स्नेह रूपी आभ्यंतर भार से हलका रहना । ६. सत्य असत्य से सर्वथा दूर रहना और आवश्यक हो तब सत्य एवं हितकारी वचनों का व्यवहार करना । ७. संयम - मन, वचन और काया की सावद्य प्रवृत्ति का त्याग करना । ८. तप • इच्छा का निरोध कर बारह प्रकार का सम्यक् तप करना । - २३ For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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