SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२ आवश्यक सूत्र 'पिण्डैषणा' और पानी ग्रहण करने को 'पानैषणा' कहते हैं । पिण्डैषणा के सात भेद इस प्रकार हैं - प्रथम अध्ययन १. असंसट्टा (असंसृष्टा ) देय भोजन से बिना सने हुए हाथ तथा पात्र से आहार लेना । - २. संसट्टा (संसृष्टा) - देय भोजन से सने हुए हाथ तथा पात्र से आहार लेना । ३. उद्धडा (उद्धृता) - असंसृष्ट हाथ, असंसृष्ट पात्र या संसृष्ट हाथ या संसृष्ट पात्र उभय प्रकार से सूझता और कल्पनीय आहार लेना अथवा बटलोई से थाली आदि में गृहस्थ ने अपने लिए जो भोजन निकाल रखा हो वह लेना । ४. अप्पलेवा (अल्पलेपा) - जिसमें चिकनाहट न हो अतएव लेप न लग सके, इस प्रकार के भुने हुए चने आदि ग्रहण करना । ५. अवग्गहीआ / उग्गहीया (अवगृहीता/ उद्गृहीता) - भोजनकाल के समय भोजनार्थ थाली आदि में जो भोजन परोस रखा हो किंतु अभी भोजन शुरु न किया हो वह आहार लेना । ६. पग्गहीआ (प्रगृहीता ) थाली आदि में परोसने के लिए चम्मच आदि से निकाला हुआ, किंतु थाली में भोजनकर्त्ता के द्वारा हाथ आदि से प्रथम बार तो प्रगृहीत हो चुका हो, पर दूसरी बार ग्रास लेने के कारण झूठा न हुआ हो, वह आहार लेना । Jain Education International ७. उज्झियधम्मा (उज्झितधर्मा) जो आहार अधिक होने से अथवा अन्य किसी कारण से फेंकने योग्य समझ कर डाला जा रहा हो, वह ग्रहण करना । खिचडी आदि बनाते समय खिचडी का अंश जो हांडी (बर्तन) के साथ चिपक गया हो जिसे खुरचन कहते हैं। ऐसी जली हुई खुरचन को गृहस्थ प्रायः फैंक देने योग्य समझता है उसे सूझता होने पर लेना । आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध पिण्डैषणा अध्ययन में तथा स्थानांग सूत्र स्थान ७ में पिण्डैषणा का वर्णन आया है। अहं पवयणमाऊणं आठ प्रवचन माता प्रवचन माता, पांच समिति और तीन गुप्ति का नाम है । प्रवचन माता इसलिए कहते हैं कि द्वादशांग वाणी का जन्म इन्हीं से हुआ है अर्थात् संपूर्ण जैन वाङ्मय की आधारभूमि पांच समिति और तीन गुप्ति है। माता के - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy