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आवश्यक सूत्र - प्रथम अध्ययन
विवेचन - प्रस्तुत पाठ संक्षिप्त प्रतिक्रमण है। इसमें संपूर्ण प्रतिक्रमण का सार आ जाता है। अतः इसे प्रतिक्रमण का सार पाठ भी कहते हैं। इसमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र की प्राप्ति के लिए तीन गुप्ति, चार कषाय, पांच महाव्रत आदि में लगे हुए अतिचारों का मिच्छामि दुक्कर्ड दिया गया है। इस पाठ से - दिवस संबंधी दोषों की आलोचना की जाती है और आचार-विचार संबंधी भूलों का प्रतिक्रमण किया जाता है।
पाठ में प्रयुक्त कुछ शब्दों का विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है -
उस्सुत्तो - उत्सूत्र। 'सूचनात्सूत्रम्' - जो सूचना करता है, उसे सूत्र कहते हैं अर्थात् मूल आगम को सूत्र कहते हैं। सूत्र विरुद्ध - श्रुतधर्म से विपरीत आचरण उत्सूत्र है।
. उभ्मग्गो - उन्मार्ग। वीतराग प्ररूपित दयामय धर्म को मोक्ष का मार्ग कहते हैं। इससे विपरीत अठारह पापयुक्त मार्ग का उन्मार्ग कहते हैं। उन्मार्ग का अर्थ है - मार्ग के विरुद्ध आचरण करना अर्थात् चारित्र धर्म से विपरीत आचरण उन्मार्ग है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने उन्मार्ग का अर्थ ऐसा भी किया है - क्षायोपशमिक भाव का त्याग कर मोहनीय आदि कर्मों के उदय से प्रकट दुष्परिणाम रूप औदयिक भाव के वश होना, उन्मार्ग है।
मार्ग का अर्थ पूर्व परंपरा अर्थात् पूर्वकालीन त्यागी पुरुषों से चला आया पाप रहित कर्तव्य प्रवाह, मार्ग कहलाता है। अतः परंपरा के विरुद्ध आचरण करना, यह अर्थ भी उन्मार्ग का किया जाता है।
अकथ्यो - अकल्प। चरण और करण रूप धर्म व्यापार कल्प कहलाता है। जो चरण-करण के विरुद्ध आचरण किया जाता है वह अकल्प-अकल्पनीय है।
अकरणिज्जो - अकरणीय अर्थात् मुनियों के नहीं करने योग्य। शंका - अकल्पनीय और अकरणीय में क्या अंतर है?
समाधान - सावध भाषा बोलना आदि प्रवृत्तियां अकल्पनीय हैं तथा अयोग्य सावद्य आचरण करना अकरणीय है। इस प्रकार अकल्पनीय में अकरणीय का समावेश हो सकता है पर अकल्पनीय का समावेश अकरणीय में नहीं होता।
दुल्झाओ - दुर्ध्यान - कषाय युत्स्त अन्तःकरण की एकाग्रता से आर्तध्यान रूप।
दुविचिंतिओ - दुर्विचिन्तित - चित्त की असावधानता से वस्तु के अयथार्थ स्वरूप का चिंतन। अशुभ ध्यान की विशिष्ट अवस्था दुश्चितन रूप हैं। अर्थात् रौद्रध्यान रूप है।
णाणे तह दंसणे चरित्ते - सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन, सम्यक् चारित्र में।
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