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आवश्यक सूत्र
प्रथम अध्यय
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सामायिक में त्याग होता है । २. 'सावर्ज्य' - अर्थात् छोड़ने योग्य । पाप कार्य तथा कषाय
छोड़ने योग्य हैं अतः सामायिक में उसका त्याग किया जाता है।
निंदामि - आत्म साक्षी से पाप की निन्दा करना अर्थात् बुरा समझना ।
गरिहामि - पर (गुरु) साक्षी से अर्थात् गुरु महाराज के सामने अपने पापों को प्रकट करना । अप्पाणं वोसिरामि - अपनी पापकारी आत्मा (कषाय आत्मा और योग आत्मा ) को वोसिता हूँ (त्यागता हूँ ) पापकार्य से दूषित हुए पूर्व जीवन को त्यागना ही आत्मा को त्यागना है।
समताभाव की प्राप्ति हुए बिना रागद्वेष का क्षय नहीं हो सकता, रागद्वेष का क्षय हुए बिना केवलज्ञान केवलदर्शन की प्राप्ति नहीं हो सकती और केवलज्ञान केवलदर्शन की प्राप्ति हुए बिना मुक्ति नहीं मिल सकती इसलिए मोक्ष का मूल कारण सामायिक ही कहा है ।
प्रतिक्रमण सूत्र
साधुओं की सामायिक यावज्जीवन की होती है, उसमें प्रमाद आदि से अतिचार की संभावना रहती है अतएव सामायिक का निरूपण करके अब इसके आगे शिष्य कायोत्सर्ग पूर्वक अतिचार की आलोचना कैसे करे ? इसके लिए निम्न प्रतिक्रमण सूत्र का निरूपण किया जाता है
इच्छामि ठामि काउस्सग्गं जो मे देवसिओ० अइयारो कओ काइओ वाइओ माणसिओ उस्तो उम्मग्गो अकप्पो अकरणिज्जो दुज्झाओ दुव्विचिंतिओ अणायारो अणिच्छियव्वो असमणपाउग्गो णाणे तह दंसणे चरित्ते सुए सामाइए तिन्हं गुत्तीणं चउण्हं कसायाणं पंचण्हं महव्वयाणं छण्हं जीवणिकायाणं सत्तण्हं पिंडेसणाणं अहं पवयणमाऊणं णवण्हं बंभचेरगुत्तीणं दसविहे समणधम्मे समणाणं जोगाणं जं खंडियं जं विराहियं तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
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हरिभद्रीयावश्यक पृष्ठ ७७८ में "ठाइडं" पाठ है।
"इच्छामि ठामि काउस्सग्गं" के स्थान पर चौथे आवश्यक में "इच्छामि पडिक्कमिउं" शब्द बोलना चाहिए ।
© जहां जहां भी 'देवसिओ' शब्द आवे उसके स्थान पर रात्रिक प्रतिक्रमण में "राइओ", पाक्षिक प्रतिक्रमण में “देवसिओ पक्खिओ", चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में "चाउम्मासिओ" और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में "संवच्छरिओ" पाठ बोलना चाहिये ।
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