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सामायिक - सामायिक सूत्र (सामायिक चारित्र लेने का पाठ)
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करण के साधन को 'योग' कहते हैं। योग तीन हैं. - १. मन २. वचन और ३. काया।
मुनि की सामायिक तीन करण तीन योग से होती है। वह पापों का यावज्जीवन सर्व प्रकार से त्याग करता है जबकि गृहस्थ की सामायिक दो करण तीन योग से होती है। गृहस्थ श्रावक १ मुहूर्त (४८ मिनिट), २ मुहूर्त आदि नियत समय के लिये पापों का त्याग करता है इसीलिये साधु के सामायिक प्रतिज्ञा सूत्र में 'जावज्जीवाए' शब्द प्रयुक्त किया गया है जबकि श्रावक के प्रतिज्ञा सूत्र में 'जावणियम' शब्द बोला जाता है।
अठारह पाप की प्रवृत्ति को 'सावध योग' कहते हैं। साधु संपूर्ण सावध योगों का त्याग करता है अतः साधु की सामायिक को सर्वविरति सामायिक और गृहस्थ की सामायिक को देश विरति सामायिक कहा जाता है।
'भंते' शब्द 'भदि कल्याणे सुखे च' धातु से बनता है। 'भते' शब्द का संस्कृत रूप 'भदंत' होता है, जिसका अर्थ कल्याणकारी होता है। संसारजन्य दुःखों से बचाने वाले - 'भदंत' गुरुदेव ही होते हैं। 'भंते' के 'भवांत' और 'भयांत' ये दो संस्कृत रूप भी बनते हैं जिसका क्रमशः अर्थ है - संसार का अंत करने वाला और भय का अन्त करने वाला। गुरुदेव की शरण में पहुँचने के बाद भव और भय का अंत हो जाता है।
'भते!' (भदन्त) शब्द के अनेक अर्थ हैं। जैसे - १. कल्याण और सुख को देने वाले २. संसार का अंत करने वाले ३. जिनकी सेवा-भक्ति करने से संसार का अंत हो जाता है ४. जन्म-जरा-मरण के भय का नाश करने वाला-निर्भय ५. भोगों को त्याग देने वाले ६. इन्द्रियों का दमन करने वाले ७. सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र से दीपने वाले। इन सब को भते' कहते हैं।
भंते! (भदन्त!) इस संबोधन से यह प्रकट होता है कि समस्त धर्मक्रियाएं गुरु महाराज की साक्षी से ही करनी चाहिये। अतः प्रस्तुत सूत्र में शिष्य गुरुदेव के सामने प्रतिज्ञा करता है कि मैं यावज्जीवन के लिए सावध योग से निवृत्त होता हूँ। पूर्व कृत पापों की आत्मसाक्षी से निन्दा करता हूँ और आपकी (गुरु) साक्षी से गर्दा (विशेष निंदा) करता हूँ तथा सावध व्यापार वाली आत्मा (आत्मपरिणति) को अनित्य आदि भावना भा कर त्यागता हूँ।
'सावज्ज' शब्द के दो रूप बनते हैं। जैसे कि - १. 'सावध' -- पाप सहित अर्थात् जो कार्य पाप क्रिया के बन्ध कराने वाले हों, आत्मा का पतन कराने वाले हों, उन सब का
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