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________________ १६ .. आवश्यक सूत्र - प्रथम अध्ययन __ कठिन शब्दार्थ - करेमि - मैं ग्रहण करता हूं, भंते - हे भगवन्! सामाइयं - सामायिक को, सव्वं - सभी, सावज्जं - सावध - पाप सहित, जोगं - योगों का, पच्चक्खामि - प्रत्याख्यान (त्याग) करता हूँ, जावज्जीवाए - जीवन पर्यंत, तिविहं - तीन करण से, तिविहेणं - तीन योग से, मणेणं - मन से, वायाए - वचन से, कारणं - काया से, ण करेमि - नहीं करूंगा, ण कारवेमि - नहीं कराऊंगा, करतं पि अण्णं ण समणुजाणामि- करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूंगा, तस्स - उससे (पूर्व कृत पापों - से), पडिक्कमामि- निवृत्त होता हूँ, जिंदामि - निन्दा करता हूँ, गरिहामि - गर्दा करता हूँ, अप्पाणं - अपनी आत्मा को, वोसिरामि - हटाता हूँ-पृथक् करता हूँ। भावार्थ - हे भगवन्! मैं सामायिक व्रत ग्रहण करता हूँ। सर्व सावद्य योगों कापापजनक व्यापारों का त्याग करता हूँ। जीवन पर्यन्त मन, वचन और काया - इन तीनों योगों द्वारा पाप कार्य स्वयं नहीं करूंगा, न दूसरों से कराऊंगा और न करने वालों का अनुमोदन ही करूंगा। हे भगवन् ! मैं पूर्वकृत पाप से निवृत्त होता हूँ। हृदय से मैं उसे बुरा समझता हूँ और गुरु के सामने उसकी निंदा करता हूँ। इस प्रकार मैं अपनी आत्मा को पापक्रिया से सर्वथा निवृत्त करता हूँ। विवेचन - जब साधक गृहस्थ अवस्था का त्याग कर सर्वविरति को अंगीकार करता है तब प्रस्तुत सामायिक सूत्र से यावज्जीवन के लिए सामायिक ग्रहण करता है अर्थात् जीवन पर्यन्त के लिये तीन करण तीन योग से पापों का सर्वथा त्याग करता है। जैन धर्म समता प्रधान धर्म है। समता की साधना को ही 'सामायिक' कहते हैं। सामायिक शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है - "समस्य आयः समायः सःप्रयोजन यस्य तत् सामायिकम्" ___ अर्थात् जिसके द्वारा समभाव की प्राप्ति हो, जिस अनुष्ठान का प्रयोजन जीवन में समता लाना हो, उसे सामायिक कहते हैं। . जैन धर्म में जो भी प्रत्याख्यान या नियम ग्रहण किया जाता है उसमें करण और योग का बहुत महत्त्व है। 'करण' का अर्थ है प्रवृत्ति। करण के तीन भेद हैं - कृत-कारितअनुमोदित। कृत - अपनी इच्छा से स्वयं करना, कारित - दूसरे व्यक्ति से करवाना और अनुमोदित - जो सावध व्यापार कर रहा है, उसे अच्छा समझना। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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