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४. यावज्जीवन १८ पापों के पूर्ण त्यागी सभी महापुरुषों का इस पाठ में समावेश हो जाता है।
५. यह पाठ सब मंगलों में सबसे उत्कृष्ट मंगल (सर्वदा मंगल रूप ) है । सदा स्मरणीय है। इत्यादि कारणों से प्राचीन ग्रन्थों (विशेषावश्यक भाष्य आदि) में इसे '१४ पूर्वी का सार' बताया गया है ।
आवश्यक सूत्र - प्रथम अध्ययन
शंका- 'नमस्कार सूत्र' के पाठ में तीनों तत्त्वों का समावेश कैसे समझना चाहिए ? समाधान 'नमस्कार सूत्र' की प्रथम गाथा (णमो अरहंताणं से णमो लोए सव्वसाहूणं तक) ही गणधरों के द्वारा रचित है, उसमें तीनों तत्त्वों का समावेश हो जाता है - वह इस प्रकार से है -
(१) देव तत्त्व - 'अरहंताणं' 'सिद्धाणं' ये आठ अक्षर देव तत्त्व के वाचक हैं। (२) गुरु तत्त्व 'आयरियाणं' 'उवज्झायाणं' 'लोए सव्व साहूणं' ये १७ (सतरह) अक्षर गुरु तत्त्व के वाचक हैं।
(३) धर्म तत्त्व - पांचों पदों के पूर्व में बोला जाने वाला 'णमो' शब्द ' धर्म तत्त्व' का वाचक है । 'णमो' शब्द पांच बार बोला जाने 'धर्म तत्त्व' के १० (दस) अक्षर हो
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जाते हैं। णमो - 'नमस्कार करना'
यह आचरण रूप कार्य है । शंका- 'णमो' शब्द से धर्म तत्त्व को कैसे समझना चाहिये ?
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समाधान - णमो (नमः) शब्द का अर्थ है - मत्तस्त्वमुत्कृष्टस्त्वतोऽहमपकृष्टः एतद् द्वयबोधानुकुल व्यापारो हि नमः शब्दार्थः अर्थात् मुझ से आप उत्कृष्ट हैं। गुणों में बड़े हैं और मैं आपसे अपकृष्ट हूँ, गुणों में हीन हूँ। इन दो वस्तुओं के बोध के अनुकूल व्यापार ही नमः शब्द का अर्थ है । यहाँ हीनता और महानता का संबंध वैसा ही पवित्र एवं गुणधायक है जैसा कि पिता-पुत्र और गुरु-शिष्य का होता है अर्थात् प्रमोद भावना से उपासक उपास्य (अपने से गुणी ) के प्रति भक्ति का प्रर्दशन करता है । सामान्य रूप से 'णमो' शब्द का अर्थ नमस्कार करना होता है। नमस्कार दो प्रकार का होता है -
१. द्रव्य नमस्कार हाथ जोड़ना, पञ्चाङ्ग झुकाना, साष्टांग प्रणाम करना इत्यादि काया (शरीर) से किया जाने वाला नमस्कार ।
२. भाव नमस्कार
आज्ञा का पालन करना। (ऐसा अर्थ 'उत्तराध्ययन सूत्र के
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