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________________ सामायिक - नमस्कार सूत्र 'परमे - उत्कृष्ट स्थाने-मोक्षे संयमे वा तिष्ठति इति परमेष्ठी।' परम अर्थात् उत्कृष्ट स्थान। लोक में उत्कृष्ट स्थान दो हैं - मोक्ष और संयम। जो मोक्ष और संयम में स्थित हैं, उन्हें परमेष्ठी कहते हैं। इन पांच पदों में सिद्ध भगवान् मोक्ष में स्थित हैं शेष चार पद - अर्हन्त, आचार्य, उपाध्याय और साधु, ये चार पद संयम में स्थित हैं। शंका - नमस्कार सूत्र या पंच परमेष्ठी सूत्र को नवकार मंत्र या पंचपरमेष्ठी मंत्र क्यों नहीं कहना चाहिये? समाधान - प्रायः मंत्र भौतिक कामनाओं की पूर्ति करने वाले होते हैं व इनकी रचना सामान्य व्यक्तियों के द्वारा होती है। णमोक्कार का पाठ आगम का पाठ है, यह सर्व प्रकार के संतापों का नाश करके मोक्ष प्राप्त कराने में सहायक है। आगम के पाठ को मंत्र कहना उसकी गरिमा को कम करना है। जैसे बी.ए. पास को दसवीं पास कहना उसकी गरिमा कम करना है। बी.ए. पास कहने से दसवीं पास तो अपने आप स्पष्ट हो ही जाता है इसी प्रकार सूत्र में मंत्र की विशेषताएं तो अपने आप निहित है। अतः इसे 'मंत्र' न कह कर 'सूत्र' ही कहना चाहिये। शंका - नमस्कार सूत्र में पहले सिद्धों को नमस्कार करना चाहिये, क्योंकि वे मोक्ष में चले गये हैं तब अर्हन्तों को पहले नमस्कार क्यों किया गया है? समाधान - अहँत, वर्तमान में धर्म की प्ररूपणा करते हैं इसलिये वे हमारे लिये अधिक उपकारी हैं। सिद्ध निराकार हैं, वे दिखाई भी नहीं देते हैं। उनकी पहचान भी अहँत करवाते हैं अत: पहले अहतों को नमस्कार किया गया है। शंका - 'नमस्कार सूत्र' को “१४ (चौदह) पूर्वो का सार क्यों कहा जाता है? ऐसा कहां बताया है? समाधान - १. नमस्कार सूत्र में १४ पूर्वो के अर्थ प्रदाता तीर्थंकरों का प्रथम 'अरहन्त' पद में एवं सूत्र रूप में रचना करने वाले 'गणधरों' का तीसरे 'आचार्य' पद में समावेश हो जाता है। २. पण्डित मरण आदि अन्तिम समय की आराधना के प्रसंगों पर भी १४ पूर्वो को नहीं सुनाया जाकर 'नमस्कार सूत्र' का श्रवण, मनन आदि किया जाता है। ___३. 'नमस्कार सूत्र' के पाठ में जैन धर्म के तीनों मौलिक तत्त्वों (देव, गुरु, धर्म) का समावेश हो जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004176
Book TitleAavashyak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages306
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size6 MB
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